20 April 2007

ज़िंदगी एक जश्न है
हर मोड़ पर टूटते ख्वाब
बिखरते ख्यालात
परेशानियां, उलझनें
इन सबको समेटते हुए
ज़िंदगी एक जश्न है
थोड़ी सी ख़ुशी
और
मुश्किलों के अंबार
ठोकर खाकर गिरता-उठता इंसान
जूझता,झिंझोड़ता,
फिर चल पड़ता
उम्मीद का दामन थाम
ज़िंदगी एक जश्न है
एक दौड़, एक प्यास
जीवन के प्रारंभ से अंत तक
थक कर बैठ गए फिर भी
ज़िंदगी एक जश्न है

02 April 2007

गुलमोहर, पलाश, अमलताश,
हरश्रृंगार, अशोक के फूल
ज़िंदगी...
किसी शायर की महकती
ग़ज़लों की तरह
कितनी मशगूल
बबूल, कैक्टस, नागफनी,
सूखे वृक्ष, उड़ती धूल
ज़िंदगी...
किसी मज़दूर की पसलियों की तरह
कितनी मज़बूर

31 March 2007

गांधी जी और सचिन तेंदुलकर का पर्सनल रिकॉर्ड बहुत अच्छा है लेकिन देश के लिए उन्होंने कुछ किया....ये उक्ति देश के कुछ महान विचारकों की है, जो वर्ल्डकप से इंडिया के बाहर होने पर निराश हुए, दीपा मेहत की बहुत धीमी रफ्तार वाली फिल्म वाटर देखकर ख़ुश हुए, सचिन तेंदुलकर और गांधी जी के उपर उन्हें उस दिन बहुत गुस्सा आ रहा था, नहीं वो गुस्सा नहीं था, अपने महान विचारों को अभिव्यकत करने के लिए मुद्दा था। हम भी तो कुछ कहें जिससे महान विचारकों में हमारी गिनती हो। दीपा मेहता की वाटर देखने के बाद वो बोले गांधी जी ने विधवाओं के लिए कुछ नहीं किया, गांधी जी ठेठ राजनीतिज्ञ थे, भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को बचाने के लिए वो आगे क्यों नहीं आए, नीची मानी जानेवाली जातियों के लिए हरिजन नाम देने के सिवाय उन्होंने कुछ नहीं किया। तेंदुलकर के साथ भी कुछ यही नाराज़गी रही। वो बस अपने रिकॉर्ड बनाता रहा, जब भी देश को उसके बल्ले से रनों की ज़रूरत पड़ी, बल्ला ख़ामोश था। चलो तेंदुलकर ने कुछ नहीं किया, गांधी जी ने कुछ नहीं किया....महान विचारकों की श्रेणी में शामिल होनी की कतार में मेरा विचार है....अपना ग़म लेकर कहीं और न जाया जाए, घर की बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाए, या फिर नारद पर ब्लॉगियाया जाए।

08 March 2007

रफीक़

वो चालीस दिनों से नियमपूर्वक नगरनिगम के ऑफिस जाता।  धरने पर बैठता, चीखता, नारे लगाता। सप्ताह में एक बार जब कमाई का वक्त आता,  सड़क पर हाट लगती तो कमाई जितनी होती उससे ज़्यादा ठेकेदार हफ्तावसूली के नाम पर लूट ले जाते। हर बार हाथ माथे पर जाकर रुक जाता, माथा हाथ पर टिक जाता। दो बच्चों की पढ़ाई, बहन का कॉलेज और ज़रुरतों के आगे अपना मन मार लेती बीवी की ख़्वाहिशें। रफीक ठेकेदारों को वो सबकुछ देने को तैयार था जो तय है। लेकिन ठेकेदार की जेब भरने के लिए अपनी ज़रुरतों को हर हफ्ते मरता नहीं देख पा रहा था। रफीक और उसके साथियों ने फैसला किया कि अब अपना उत्पीड़न नहीं होने देंगे। अब आवाज़ उठाएंगे। उम्मीद थी एक बार नहीं, दूसरी बार नहीं, तीसरी बार भी नहीं लेकिन कभी तो सरकार आवाज़ सुनेगी। कभी तो मांग पूरी होगी। ठेकेदार के ख़िलाफ़ रफीक और उसके साथी कलेक्ट्रेट जाते। कपड़े पर अपनी मांगें छपवा रखी थी, पेड़ पर उसे टांग देते और धरना शुरु हो जाता। तीन हफ्ते से ज़्यादा वक़्त बीत गया। कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई। तय हुआ कि पीछे नहीं हटना है। मांगे पूरी करवाने के लिए अब दो लोग अनशन पर बैठ गए। नगरनिगम के आयुक्त से मिले। सरकार के बाशिंदों तक जाकर अपनी तकलीफ बताते रहे। लेकिन आम आदमी की तकलीफ सरकार के लिए रोज़ का रोना थी। रफीक सोचता ये कैसा लोकतंत्र है। यहां चालीस दिनों से हम धरना दे रहे हैं लेकिन सुनने वाला कोई नहीं। न अधिकारी, न नेता, न पुलिस। एक व्यक्ति ज़्यादती किए जा रहा है सब जानते हैं लेकिन कोई कुछ नहीं बोलता। सारे दुकानदारों का आक्रोश चरम पर था। एक मीटिंग बुलाई गई, एक और फैसला लिया गया। गरीबों की बैठक का फैसला। आत्मदाह का फैसला। तय हुआ कि रफीक और उसका एक और साथी आत्मदाह करेंगे। शायद तब एयरकंडीशन चैंबर में बैठे नेताओं-अधिकारियों तक उनकी आवाज़ पहुंचे। शायद तब बच्चों की पढ़ाई न रुके। बहन कम से कम अपना कॉलेज पूरा कर सके। त्यौहार पर बीवी को नए डिजायन वाले सोने के टॉप्स न सही एक सूती साड़ी तो दे दी जाए। ये विरोध का चालीसवां दिन था और अंतिम दिन भी। तय कार्यक्रम के मुताबिक रफीक और उसके साथी एक बार फिर अपनी मांगों को लेकर नगरनिगम पहंचे। तय फैसले पर काम करने से पहले एक बार फिर अधिकारियों से बातचीत की। क्यों नहीं वे ठेकेदारों की मनमानी पर अंकुश लगाते हैं, तहबाज़ारी के नाम पर ठेकेदार उनका ख़ून चूसना बंद करें। तमाम बातें वो कहते रहे, अधिकारी सुनते रहे, बात बनती न देख आखिर रफीक और उसके साथी ने अपने फैसले को कारगर कर दिखाया। बदन पर मिट्टी का तेल डाल कर एक तीली जलाई और खुद को आग के हवाले कर दिया। अब सबकुछ बदल गया। अधिकारी चीख रहे थे, पुलिस मुस्तैद, नेताजी वादे कर रहे थे। आग की लपटों ने रफीक के साथी को तो बख्श दिया लेकिन रफीक नहीं रहा। रफीक, उसकी मांगें, उसकी ज़िम्मेदारियां, उसका परिवार, बच्चे-बहन-बीवी सब कुछ स्वाहा। रफीक की बीवी रोई तो। लेकिन ज़्यादा नहीं। वो ये तय कर रही थी कि अब घर कैसे चलेगा। चूल्हा कैसे जलेगा। उसने फैसला किया कि बाप की छोड़ी दुकान बेटा संभालेगा। वो तहबाज़ारी जो उसके बाप ने देने से मना कर दी थी, वो उसके लिए नहीं मना करेगी। क्योंकि अब वो जानती थी कि ताकत ही बोलती है, ताकत ही करती है, वो ताकतवर नहीं इसलिए उन्हें वो सब करना होगा जो उनसे कहा जा रहा है। जो कमज़ोर हैं उन्हें ताकतवर की बात सुननी होगी। रफीक की बीवी ने तय किया कि अब तक घर के अंदर चूल्हा-चौका करती थी अब दूसरे घरों के भी बर्तन मांज दिया करेगी। चूल्हा-बर्तन करेगी और बेटी इस काम में उसकी मदद करेगी। वो भी घर-घर जाकर चूल्हा बर्तन करेगी। रफीक के साथियों के गुस्से के बाद सरकार ने एक लाख रुपया मुआवज़ा दिया। तय किया कि कुछ पैसों से ननद की शादी की बात चलाएगी। कुछ बेटी के ब्याह के लिए पोस्टऑफिस में जमा करा देगी और कुछ रोज़ की ज़रुरतों में थोड़ा-थोड़ा कर खत्म हो जाएंगे। पहले रफीक फैसले कर रहा था और अब उसकी बीवी। एक बार ये भी ख्याल आया कि रफीक का अंतिम फैसला वो भी क्यों न ले ले। रात भर सोचा कि पूरे घर को आग की भेंट चढ़ा दूं। एक और आत्मदाह। फिर मासूम बच्चों के चेहरे की ओर देखा, जिन्हें अभी ज़िंदगी देखनी है। ननद की ओर देखा जो कॉलेज पूरा कर अच्छी नौकरी करना चाहती है। खुद को शीशे में देखा। ग़रीबी से सपनों पर तो कोई फर्क नहीं पड़ता।  उसने कई सपने देखे थे खुद के लिए। उसने रफीक की तरह आत्मदाह का अंतिम फैसला नहीं लिया। रफीक की बेवा अब घर-घर जाकर झाडू-बर्तन करती है, बेटी साथ होती है। बेटा दुकान अच्छी तरह संभालने लगा।
अब सब कुछ शांत है। किसी को याद नहीं रफीक कौन था। उसकी मांगें क्या थीं। रफीक के साथी अब भी अपनी हाट में बैठते हैं। ठेकेदार अब भी मनमानी तहबाज़ारी वसूलते हैं। अब वो चुपचाप ठेकेदार को पैसे दे देते हैं। अब वो इस पर आक्रोशित भी नहीं होते, दुखी भी नहीं होते। अब इनके लिए ये सब सामान्य है। यही ज़िंदगी है।

आठ घंटे की नौकरी का फ़साना

आठ घंटे की नौकरी
आप आते हैं
उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं
फिर बातें...थोड़ी इधर की...थोड़ी उधर की
हाथ में एक स्क्रिप्ट लिया
अब थोड़ी देर टहलिए
काम के बीच
थोड़ी चाय, और चाय के साथ
देश के हालात पर गंभीर चर्चा
भ्रष्टाचार, चमचापरस्ती,
लड़कियों की अदाओं से लेकर
केबिन की हलचलों पर
कुछ तर्क-कुतर्क
जिससे पता चलेआप बुद्धिजीवी हैं
आप सोच समझ सकते हैं
इन सारी बात के बीच कुछ जलनकुकड़ी बातें भी
बॉस ने इसे उठाया...उसे गिराया
आपने किसे उठाना है
किसे गिराना है
थोड़ा काम ढेर सारा आराम
जब बॉस दिखें
तो व्यस्त लगने की पूरी कोशिश करें
इतनी कि बॉस को यकीन हो जाए
और ओझल हों तो बातों की बोरी खोलिए
आठ में से छे घंटे
बिना किसी परेशानी के कट जाते हैं
बाकि बचे दो घंटे
चूंकि काम करने वाले ज़्यादा हैं
काम कमआप बोर होते हैं
गुस्सा आता है
फिर कहते हैं
ये भी कोई जगह है
साला...
कोई काम नहीं
आओ, बैठो, बातें करो और चले जाओ
व्यवस्था पर आपको गुस्सा आता है
इतना कि ब्लडप्रेशर पर कोई असर न हो
एक घंटा पैंतालिस मिनट इसमें कट जाएंगे
बाकि बचा पंद्रह मिनट
अब एक नई उर्जा धमनियों में दौड़ रही है
मुर्झाया चेहरा खिल उठा
एक दिन की रोज़ी बनी
अब जाना है
आनेवालों से मिलिए
जानेवालों को सलाम किजिए
कल की कोई चिंता नहीं
आप ख़ुश हैं
बिना किसी काम के
कामचोरी के लिए कड़ी मेहनत करने के बाद
अब वक़्त घर वापसी का है
नाइट गुड है
रात को नींद भी अच्छी आती है
चेहरे पर कोई शिकवा-शिकन नहीं
यही तो है आठ घंटे की नौकरी के सुख
और दर्द भी...।

(एक टीवी चैनल के डेस्क पत्रकार के हाल पर लिखी गई कविता)
मचांग को याद नहीं कि कब उसकी जवानी परवान चढ़ी, कब बुढ़ापे ने दस्तक दी, कब चेहरा झुर्रियों में खो गया और कैसे सीधी तनी रीढ़ झुकती चली गई। पिछले चौवन सालों से उसकी ज़िंदगी में गिनती की कुछ चीजें हैं.... जेल की सलाखें, एल्यूमिनियम की टेढ़ी-मेढ़ी प्लेट, टूटा गिलास, दो जोड़ी कैदी की वर्दी, एक फटा कंबल। ऐसी ही कुछ और चीजें आप अपनी समझ से इनमें जोड़ सकते हैं। पिछले चौवन सालों में उसने कोई लंबी दूरी तय नहीं की, सलाखों से अंदर कुछ कदम अंदर और कुछ कदम बाहर उसने बार-बार, बार-बार नापे हैं। इन्हें चंद कदमों में उसकी दुनिया शुरु भी होती है, खत्म भी हो जाती है। पिछले चौवन सालों में उसकी कल्पनाएं भी जेल के मैदान से दिखने वाले आकाश जितनी सीमित हो गई। उसके लिए तो आकाश सिर्फ उतना ही है जितना जेल के अंदर से दिखता है। आज वो सतहत्तर साल का है। चौवन साल बाद आज उसे आज़ादी मिली है। मचांग सोचता है... जब वो जेल आया होगा उसकी उम्र क्या रही होगी। वो हिसाब नहीं लगा पाता, पर हम सब इतना हिसाब तो लगा ही सकते हैं। मचांग को अपने घर की याद है, मां-बाप की याद है, मां के हाथ बनी रोटियों की और पिता की फटकार की भी याद है। पर उसे ये याद नहीं कि उसके भाई-बहनों की संख्या ठीक-ठीक कितनी होगी। शायद उसे छोड़कर चार और... नहीं-नहीं छोटी को तो मै भूल ही गया..शायद पांच लेकिन एक भाई तो शायद बचपन में ही बीमारी के बाद चल बसा था। तो अब चार। लेकिन जब वो जेल गया था तो मां की गोद में एक नन्हा बच्चा था, उसे भी जोड़ लें तो हुए पांच। मचांग अपने भाई-बहनों की सही संख्या का अनुमान तक नहीं लगा पाता। आज आज़ादी मिली है लेकिन क्या करे इस आज़ादी का, कहां जाएं, किससे मिलें, क्या किसी को उसकी याद होगी, मचांग सोचता है। मचांग को तो कोई अफसोस नहीं कि वो इतने बरस जेल में रहा क्योंकि जेल के अंदर इतने बरस ने अनुभूतियां छीन लीं, सुख-दुख में भेद छीन लिया, उसके लिए तो जो हो रहा है इसलिए हो रहा है क्योंकि वो होना है। उसे कोई अफसोस नहीं लेकिन ये जानकार शायद आपको अफसोस होगा। मचांग को तो ये ठीक-ठीक याद भी नहीं कि वो जेल क्यों लाया गया था। जेल आने के कुछ सालों तक तो याद रहा होगा लेकिन अब वो उसकी यादें भी गडमड हो गई हैं। हमें ये तो पता है कि मचांग को जेल क्यों लाया गया लेकिन इतने बरस क्यों जेल में क्यों रखा गया ये न पूछिये। पुलिस के पास भी इसका आपराधिक रिकॉर्ड तो दूर मुकदमे की कार्रवाई तक के कोई रिकॉर्ड नहीं हैं। अगर कानून की भाषा में बात की जाए तो...। कोशिश करके देखते हैं। हुआ ये कि चौवन बरस पहले मचांग को खतरनाक हथियार से हमला करने के आरोप में <धारा 326 के तहत> गिरफ्तार किया गया। जिसकी अधिकतम सज़ा दस साल हो सकती है। तो हथियार रखने के आरोप में तेईस साल के मचांग को असम पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। बस इतना ही। उसके बाद मचांग पर कोई मुकदमा नहीं चला, कोई सुनवाई नहीं हुई, कोई सज़ा नहीं सुनाई गई। बस मचांग गिरफ्तार किया गया और जेल भेज दिया गया। पुलिस के दफ्तर में इस समय तेईस बरस पहले मचांग की गिरफ्तारी तक के कागज नहीं, क्या-क्यों-कैसे हुआ, कुछ पता नहीं। उस पर एक आरोप लगा लेकिन वो साबित नहीं हुआ क्योंकि किया नहीं गया। शायद आरोप साबित हो जाता तो भी बेहतर था लेकिन नहीं हुआ। हम-आप सिर्फ अफसोस जता सकते हैं लेकिन मचांग ने इस क्रूर हकीकत को जिया है। पुलिस के पास मचांग से संबंधित कोई रिकॉर्ड नहीं है। तब जिन अधिकारियों ने वो गलती की थी वो अब नहीं रहे। अब के अधिकारियों के लिए मचांग सिर्फ एक गलती है, भयानक गलती जो सुधारी नहीं जा सकती। ख़ैर ये तो बीती बात हुई। इंसान होने की एक अच्छी बात है कि चाहे दुख हो या सुख, वक़्त के साथ वो सब भूल जाता है। हां, वक़्त कुछ नहीं भूलता सब दर्ज़ करता चलता है। लेकिन यहां तो वक़्त भी मचांग को भूल गया, और मचांग वक़्त को। गांव की धूमिल यादें हैं, रास्ते भी धुंधलके में याद आते हैं। आज़ादी मिली है, ग़ुमनाम आज़ादी, मचांग सोच पाता है कि चलो उस धूमिल गांव और धुंधले रास्ते को खोजा जाए। सोचता है वो अपने गांव से कितनी दूर होगा, ये रास्ता कैसे पार किया जाएगा। बहुत दिनों बात मचांग कुछ सोच रहा है। उसकी दिमाग की शिराओं में इतने सालों बाद शायद पहली बार सोच के हार्मोन्स निकल रहे हैं। वो नक्शा बनाने की कोशिश करता है, नहीं बना पाता। मचांग की आंखों में एक चमक कौंधी जैसे तूफान के समय आकाश में बिजली कौंधती है। रेलगाड़ी...हां रेल जाती है उसके गांव। लेकिन कौन सी। मचांग राहगीरों से पूछना चाहता है लेकिन वो बोल नहीं पाता। इतने सालों तक वो कुछ नहीं बोला था। मचांग सामने एक बड़े से पेड़ की ओट में जाता है ताकि सड़क चलते लोग उसे देख न सकें। वो बोलने की कोशिश करता है। जबड़े को खींच कर कानों तक ले आता है, चेहरे-गले की रगें खिंच जाती हैं, ऊं-गूं-ऊं जैसी कुछ आवाज़ निकलती है, ज़ुबान हिलती है, गला अंदर तक दिखता है, लेकिन बोल नहीं पाता। इतने सालों बाद आंखों से आंसू निकले। पिछले चौवन सालों में मचांग कभी नहीं रोया। शायद ज़िदगी मचांग के शरीर में प्रवेश कर रही थी हालांकि उसका जिस्म अब 77 साल के एक बूढ़े का जिस्म है। एक जर्जर मकान की तरह जर्जर। लेकिन बांध से छोड़े गए पानी की तरह उसके जर्जर जिस्म में भी एक ज़ोरदार धमक हुई। हां, सच मानिए ये ज़िंदगी का ही प्रवेश था। मचांग एक बार फिर हरे पत्तों में और छिपकर बोलने की कोशिश करता है। गला खोलता है, ज़ुबान हिलाता है, फिर कोशिश करता है, फिर कोशिश करता है, फिर कोशिश करता है। म्म्म्म्मां...आआआ। कुछ ऐसी ही ध्वनि। कुछ हुआ शायद। हां उसके कानों ने उसकी ज़ुबान से निकले गडमड अक्षर सुने, वो सोचता है यानी शब्द बन सकते हैं। उसे अपने गांव का नाम याद है(.....)। वो बोलने की कोशिश करता है, ख़ुश होता है, रोता है। लेकिन हम अभी ख़ुश नहीं हो सकते। क्योंकि हमें अभी उसकी भाषा समझ नहीं आ रही, हां यदि शब्दों की जगह भावनाओं को सुनें तो कुछ सुनाई दे सकता है। बड़ी देर तक पेड़ के पीछे इस अभ्यास के बाद मचांग बाहर निकलता है। अब वो थोड़ा बदला सा लगता है। उसमें थोड़ा आत्मविश्वास है और पूरी ज़िंदगी। वो रास्ते भर बोलने की कोशिश करता है। कुछ-कुछ बोलता है। कुछ-कुछ नहीं भी। दो दिन इसी तरह एक सड़क किनारे गुज़र जाता है। मचांग को रेल की पटरियां दिखाई देती हैं, पटरियां पकड़ वो एक छोटे से स्टेशन तक पहुंच जाता है। दो दिन स्टेशन पर गुज़र जाते हैं, क्योंकि उसे नहीं मालूम कौन सी ट्रेन उसके गांव तक जाएगी। अब गांव और वहां के धुंधले रास्ते की तस्वीर उसके दिमाग में कुछ साफ हो रही है। वो तस्वीर को जोड़ कर एक पूरी फिल्म बनाने की कोशिश कर रहा है। उसकी इस फिल्म में एक पौधा बार-बार आता है। मचांग देखता है कि वो अपने कुछ दोस्तों के साथ वो पौधा रोप रहा है। उसे पानी दे रहा है। जानवरों से उसकी रक्षा कर रहा है। वो पौधा मचांग के दिमाग में अटक जाता है। उसे याद आ रहा है, उसने कल्पना की थी कि एक दिन ये पौधा बड़ा होकर पेड़ बनेगा। उसकी शाखाएं होंगी। शायद एक ख़ास मौसम में उसमें फूल भी लगते हैं। कौन सा मौसम। अचानक उसकी धमनियों में रक्त का बहाव तेज़ हो जाता है। यही मौसम। हां-हां यही मौसम। हमारे-आपके लिए अच्छी बात ये है कि मचांग की अनुभूतियां लौट रही हैं। ये अक्टूबर का महीना है,....ऋतु। मचांग अब अपने शरीर को छूकर गुज़रने वाली हवा को महसूस करने की कोशिश करता है। एक बार फिर उसकी आंखें चौंधियाती हैं। आप जानकर और ख़ुश होंगे वो हंसने की कोशिश करता है। देखिए वो हंस रहा है, हालांकि लोग उसकी हंसी समझ नहीं पा रहे। लेकिन शायद समझ जाएं। तभी अचानक उसके कानों में कुछ आवाज़ आती है।........एक भीड़ से आ रही थी वो आवाज़। कुछ लोग थे, कुछ नौजवान लोग। वहीं से आवाज़ आयी। एक बार वही शब्द। अरे यही तो वही शब्द है, उसके गांव का नाम। हां-हां यही शब्द तो उसके गांव का नाम है। प्लेटफॉर्म पर ट्रेन रुकती है। वो भीड़ ट्रेन में घुसने लगती है। मचांग डर जाता है उन लोगों को जाता देखकर। पता नहीं वो इस शब्द को दुबारा कब सुन सकेगा। शायद ये लोग उसके गांव के हों। वो अपनी पूरी शक्ति लगाकर सोचता है और पूरी समझ के साथ उस ट्रेन में उनके पीछे घुस जाता है। उसी भीड़ की बगल में डरा-सहमा बैठ जाता है। वो उस भीड़ से बात करना चाहता है। क्या बोले, गला फिर खोलता है। ट्रेन में वो चिल्ला भी नहीं पाता। ट्रेन चल पड़ती है। वो उनसे बातचीत की कोशिश करता है। डर जाता है। बात नहीं कर पाता है। कुछ दूरी की यात्रा के बाद वो एक बार फिर कोशिश करता है। उस भीड़ मे से जो सबसे सहज-विनम्र शक़्ल उसे दिखती है। वो उससे मुखातिब होता है। कुछ उलझे शब्द निकालता है और इस असफल कोशिश से इस बार उसकी आंखों में दुख के आंसू आते हैं। मचांग बोल नहीं पाता लेकिन उसका अंदाज़ा एक दम ठीक निकलता है। वो व्यक्ति वाकई सहज विनम्र था, उसने मचांग की तरफ दया भरी नज़र डाली। उसे लगा वो भूखा है तो अपने साथ लाए खाने में से एक रोटी उसकी तरफ बढ़ा दी। रोटी देखकर मचांग पहले तो कुछ समझ नहीं पाया। पिछले चौवन सालों से वो जेल की जली-कटी सख्त रोटियां ही खाता आया है। ये रोटी तो बहुत छोटी-मुलायम और खूबसूरत दिखती है। मचांग सोचता है क्या मै इसे खा सकता हूं। थोड़ी देर तक रोटी को घूरने के बाद वो उसपर टूट पड़ता है। सज्जन व्यक्ति उसकी भूख का अंदाज़ा लगाता है... वो कुछ और खाना उसकी तरफ बढ़ा देता है। भीड़ के कुछ साथी सो रहे होते हैं, लेकिन मचांग नहीं सोता। कहीं वो सो गया और ये लोग उतर कर चले गए तो। भरपेट खाने के बाद ख़ूबसूरत नींद की दस्तक के बावजूद वो नहीं सोता। सबकी नींद एक-एक कर टूटती है, वो मचांग को देखते हैं, इतनी देर ट्रेन के डिब्बे में बैठने के बाद और मचांग की हालत देखने के बाद उन्हें मचांग से सहानुभूति होती है। वे उससे बातचीत की कोशिश करते हैं, बातचीत सफल नहीं हो पाती लेकिन मचांग की निश्छल हंसी उन्हें भाती है। इस सफ़र की मंज़िल आ गई, भीड़ ट्रेन से उतर रही है। मचांग भी इनके साथ जल्दी-जल्दी उतरता है। इनके पीछे-पीछे चलता है। उस सज्जन व्यक्ति ने एक बार फिर मचांग पर निगाह डाली, पूछा- वो उनके पीछे-पीछे क्यों चल रहा है। मचांग उस शब्द को, अपने गांव के नाम को दुहराने की कोशिश करता है। आपको जानकर आश्चर्य होगा लेकिन इस बार वो अपने गांव का नाम उच्चारित कर लेता है। नौजवान पूछते हैं वो इस गांव को कैसा जानता है। वो इशारे से बताता है, ये मेरा गांव है। बार-बार, कई बार वो अपने गांव का नाम दुहराता है। नौजवान उसे अपने साथ ले जाते हैं। मचांग को रास्ते याद आते हैं। चौवन सालों का फर्क उसके गांव पर भी पड़ा है लेकिन ये गांव ज़्यादा नहीं बदला है। अचानक मचांग को वो रास्ता दिखता है जो उसके घर को जाता है, मचांग दौड़ पड़ता है, पूरी शक्ति के साथ। गिरता है, उठता है, दौड़ता है, रोता है, हंसता है और स्तब्ध रह जाता है। घर के बाहर जो पौधा उसने रोपा था। वो पेड़ बन गया है, उसकी शाखाएं फूलों से लदी हैं। वो उसका पेड़ है। मचांग उस पेड़ से लिपट कर रोता है। नौजवान उसे देख रहे हैं। ये उसका पेड़ है। कम से कम कोई तो है उस वक्त का, जो उसे पहचानता है। जिसे वो पहचानता है। लेकिन उसे अपना घर वहां नहीं दिखता। कहां होगा उसका घर और घरवाले। कोई बात नहीं पेड़ तो है। मचांग उसी पेड़ के नीचे रहता है। वहां से कहीं नहीं जाता। दो-तीन दिन बाद। एक लंबी रात के बाद एक सुबह आती है। मचांग हिलता-डुलता नहीं बस सोता है, चौवन सालों से भी लंबी नींद। मचांग सो चुका है। गांव की भीड़ इकट्ठा है। मचांग की पोटली खोली जाती है। एक चिट्ठी मिलती है। चौवन साल बाद रिहा किया गया मचांग। चौवन सालों में उसकी ज़िंदगी का हर लम्हा जेल की चारदीवारी के भीतर मिट गया। लेकिन एक चीज नहीं बदली थी, उसका नाम मचांग। गांव का एक बुजुर्ग पहचानता है उस नाम को। लेकिन अब अंत हो चुका है। वो व्यक्ति रोता है, अपने बड़े भाई की मृत्यु पर। याद करता है, कभी इस नाम का उसका भाई हुआ करता था। उसकी मां ने बताया था। जिसकी याद में वो खाने के वक्त एक कौर पक्षियों को डालती थी।