25 December 2008

बात पैसों की नहीं है

मैं उस समय खुद को बहुत असहज महसूस करती हूं जब कोई मेरे सामने हाथ फैलाए। भिक्षावृत्ति रोकने के लिए मेरी राय में भीख नहीं देनी चाहिए और जब भिखारी प्रोफेशनल हों। जैसे सड़कों-चौराहों पर बच्चे को गोद में लेकर उनके नाम पर भीख मांगती हट्टी-कट्टी औरतें।
स्कूल के वक़्त में एक बार ऐसी ही एक औरत को मैंने बीस रुपये दिए थे, जो उस वक़्त मेरी पॉकेटमनी के हिसाब से बहुत थे, वो औरत अपने पति के एक्सीडेंट के बाद इलाज़ के लिए पैसे मांग रही थी। चंद हफ्तों बाद मैंने उसे दूसरी जगह पर उसी बहाने से पैसे मांगते देखा। तब मैंने तय किया था कि भीख नहीं दूंगी।

कुछ महीने पहले की बात है। एक औरत और उसका सोलह सत्रह साल का बेटा मेरे ऑफिस के बाहर खड़े थे। कह रहे थे महाराष्ट्र से आए हैं,पति को ढूंढ रहे हैं, वो मिला नहीं, घर जाने को पैसे नहीं। मैंने चाय की दुकान पर ऑफिस के कुछ लोगों को उससे मिलवाया। हमने तय किया कि इन्हें पैसे दे देते हैं फिर चाय भी पिलवाई। महिला के हुलिये से समझने की कोशिश कर रहे थे ये महाराष्ट्रियन है या नहीं। चायवाला कह रहा था पैसे मत देना ये झूठ बोल रहे हैं, फिर भी पैसे दिए कि अगर ये झूठ भी रहे हों तो हमारे कितने पैसे ज़ाया होंगे, क्या पता सच कह रहे हों तो ऐसे में हम अपने शक़ की बिनाह पर उनकी मदद भी न कर पाएंगे।

थोड़े ही दिनों पहले एक और घटना है। दरवाजे पर दो नौजवान आए। दिल्ली में किसी आशा नशा मुक्ति केंद्र का सर्टिफिकेट दिखा रहे थे। पहले मैंने उन्हें जाने को कह दिया और दरवाजा बंद कर लिया। पर फिर बेचैनी हो गई। मैंने उन्हें आवाज़ देकर बुलाया। उनके सर्टिफिकेट्स देखे, एक कैलेंडर भी था उनके पास, मैंने चंद रुपयों की मदद दे दी और सोचा पता करुंगी इस नशा मुक्ति केंद्र के बारे में।

अभी थोड़ी देर पहले दो कश्मीरी लड़कियां आईं। बताया कि दिल्ली के आईएसबीटी शास्त्री पार्क में इनका कैंप है। जम्मू-कश्मीर में बर्फ़बारी के वक़्त ये लोग यहां आ जाते हैं। इनके मिट्टी के मकान हैं जहां ठंड में रहना बहुत मुश्किल होता है। कैंप में कुछ लोग काम भी करते हैं, कपड़े प्रेस करते हैं, लड़कियां डीएवी की किसी ब्रांच में पढ़ती भी हैं, कोई कश्मीरी टीचर है जो इन्हें पढ़ाती है, इम्तिहान ये कश्मीर में ही देते हैं। समझ नहीं आया क्या करूं, फिर असहज महसूस करने लगी।

यहां भी मैंने कुछ पैसे दे दिए, फिर इनसे बातें भी की। दोनों ने कुछ खाने को मांगा तो फल दिए और उन्हें घर में आकर खाने का ऑफर भी दिया। पर उन्होंने मना कर दिया। दोनों लड़कियां बहुत ही प्यारी लग रही थी। मैंने दरवाजा बंद कर लिया।

उन्होंने मेरे पड़ोस में घंटी बजाई, पड़ोस की औरत ने उन्हें डपट दिया- "सिक्योरिटी गार्ड तुम्हें अंदर कैसे आने देते हैं, हमारे पास कोई और काम नहीं, तुम्हारी बातें सुनें.." इतनी ही आवाज़ कान में पड़ी।

पर अब भी मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा। सड़क पर बैठे भिखारियों को न कहने पर कभी बुरा नहीं लगता। बहुत सारे लोग ग़रीब या विकलांग का सर्टिफिकेट बनवाकर घर पर भी पैसे मांगने आ जाते हैं, उन्हें भी पैसे देने की इच्छा नहीं होती। बात दरअसल पैसों की नहीं है। पर अगर कोई सचमुच मदद मांगने आया हो तो उसे लौटाना ठीक नहीं लगता। जाने कौन सचमुच मुश्किल में फंसा है, कौन ठगी कर रहा है।

20 December 2008

लाइफ को तो प्री-पेड कराओ




ये लाइफ टाइम प्री-पेड कार्ड है, वैलिडिटी खत्म होने की चिंता खत्म, बस पैसे डालो और टॉकिंग-शॉकिंग शुरु। जनाब इरफ़ान ख़ान साब भी टीवी पर ऐसा ही कुछ बांचते नज़र आते हैं। लेकिन लाइफ-टाइम प्री-पेड कार्ड बेचनेवाले की कॉल ने मेरी कज़न के लाइफ का बहुत सारा टाइम खा लिया। वो झल्ला जाती। जब लाइफ का टाइम नहीं फिक्स्ड है तो लाइफ टाइम प्री-पेड कार्ड का क्या मतलब। पहले लाइफ को प्री-पेड कराओ तब तो लेंगे लाइफ टाइम प्री-पेड कार्ड। ख़ैर मैं और मेरी कज़न इस बात पर बहुत देर तक हंसते रहे। फिर हमने गर्व से कहा हम तो पोस्ट-पेड वाले हैं। लाइफ-टाइम टॉकिंग-सॉकिंग से एक महीने के बिल की छुट्टी।

09 December 2008

क्या हम खरे हैं ?


क्या हम चेकिंग के लिए लगी लंबी कतार देखकर झल्लाते नहीं। इससे बचने के उपाय नहीं ढूंढ़ते?
क्या मॉल-सिनेमाहॉल जैसी भीड़भाड़वाली जगहों पर सिक्योरिटी वाले महज दिखावे की चेकिंग नहीं करते। क्या हम उसकी शिकायत करते हैं?
क्या हम अपने ईर्द-गिर्द घट रही संदिग्ध चीजों को बड़ी आसानी से नज़रअंदाज़ कर आगे नहीं बढ़ जाते?
क्या हम ड्राइविंग लाइसेंस, पासपोर्ट और ऐसे तमाम काम करवाने के लिए उपर से पैसा नहीं देते?
क्या हम सड़क पर कूड़ना नहीं फैलाते?
क्या हम रेड लाइट क्रॉस नहीं करते?
क्या हम कार की सीट बेल्ट लगाकर चलते हैं?
क्या हम बाइक पर हेलमेट लगाकर चलते हैं?
क्या हम अपनी सड़कों को गंदा नहीं करते?
क्या हम जो बोलते हैं, लिखते हैं, भाषणबाज़ी करते हैं, असल ज़िंदगी में हम उतने ही खरे हैं?
ऐसे बहुत से सवाल हैं जो हमें खुद से भी पूछने चाहिए। आतंकी हमलों से लेकर सड़कें गंदी करने तक में हम शामिल हैं।
हमारी कमज़ोरियां ही दुश्मन की ताक़त हैं। जब तक हम नहीं सुधरेंगे, देश कैसे सुधरेगा?

05 December 2008

चलो कुछ उम्मीद ले आएं








जो सर्जक हैं
रचते हैं जीवन की
बुनियादी शर्तें
और गाते हैं
चलो, उनसे
उम्मीदों की उम्र
सपनों की गहराई
और उड़ान की
ऊंचाई मांग लाएं
अनाज की पूलियों
की तरह
लाद कर घर लाएं


(ये कविता मैंने अपने कमरे की दीवार पर छपे पोस्टर से ली है। किसकी है ये पता नहीं। पर कविता बहुत सुंदर है, उम्मीद देती है जीने के लिए। पिछली पोस्ट को मैं जल्द से जल्द नीचे लाना चाहती थी,शायद हटा भी देती, लेकिन टिप्पणियां पोस्ट से ज्यादा सार्थक थीं इसलिए नहीं हटाई, कुछ नया डालने की जद्दोजहद में कुछ मिला नहीं, फिर इस कविता पर नज़र गई, तो सोचा यही क्यों नहीं)

26 November 2008

हम कहां जा रहे हैं?

नाइट शिफ्ट करके अभी-अभी घर पहुंची हूं। कम्प्यूटर देखते ही खुद को लिखने से नहीं रोक सकी। हालांकि मैं हमेशा ऐसे विषयों पर लिखने से बचती हूं। पर आज की सारी रात मुंबई हमलों में घायलों, मरनेवालों, बंधकों, रिहा होनेवालों के आंकड़े जुटाते-जुटाते खपी। इन पर ख़बरें बनाते-बनाते लग रहा था हम तबाह हो रहे हैं। कहां हमारा देश विकास की नई इबारतें लिख रहा था, कहां ये आतंकी हमले सर से पांव तक कंपकपा देते हैं। इराक,अफगानिस्तान जैसा हाल हो रहा है। कोई आतंकवादी चुपचाप कहीं विस्फोटकों से लदा बैग, टिफिन, साइकिल नहीं छोड़ गया। वो हमारे देश की आर्थिक राजधानी के बड़े पॉश होटलों-अस्पतालों-रेलवे स्टेशन पर तबाही मचा रहा था वो भी खुले आम। होटल ताज का गुंबद धूं-धूं कर जल रहा था और हमें बता रहा था देखो हम कितनी तबाही मचा सकते हैं, मचा रहे हैं। हम फिर हिंदू-मुसलमान करने लग जाएंगे। पर यार जो मर रहे हैं, घायल हो रहे हैं, वो कोई हिंदू-मुसलमान नहीं होते, इंसान होते हैं, जिन्हें उस हालत में देखकर रुह कांप जाती है। एक महिला होटल की खिड़की से बार-बार हाथ दे रही थी, बचाने की गुहार लगा रही थी, वो तस्वीर कभी भुलाई नहीं जा सकती। पुलिस की गाड़ी में बैठकर आतंकवादी गोलियां चला रहे थे। हम कहां जा रहे हैं? सबसे बुरी बात तो ये है कि ये हमले-धमाके हमारी आदत में शामिल होते जा रहे हैं। कश्मीरियों का ख्याल आ रहा है। जो अनिश्चित सुबह, अनिश्चित शाम के साथ जीते हैं। अब पूरा देश कश्मीर बनता जा रहा है।

18 November 2008

"बचाओ- विलुप्त हो सकते हैं गिद्ध"





अगले दस साल में विलुप्त हो सकते हैं एशियाई गिद्ध। इससे पहले भी मैं बचाओ सीरीज़ के तहत खतरे में आए प्राणियों पर जानकारी दे चुकी हूं। पृथ्वी के बहुत सारे जीव-जंतु बदले पारिस्थितक तंत्र में अपने अस्तित्व को खोते जा रहे हैं। एशियाई गिद्ध भी इन्हीं में से एक है। गिद्धों की संख्या में आ रही कमी के लिए ज़िम्मेदार है जानवरों को जी जानेवाली एक दवा, जिसका नाम है डाइक्लोफेनाक। ये दवा जानवरों को दर्द के लिए दी जाती है। हालांकि इस दवा पर प्रतिबंध हैं फिर भी ये बाज़ार में उपलब्ध रहती है और इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल होता है।

एक सर्वे के मुताबिक सफ़ेद पूँछ वाले एशियाई गिद्धों की संख्या 1992 की तुलना में 99.9 प्रतिशत तक कम हो गई है। लंबे चोंच वाले और पतले चोंच वाले गिद्धों की संख्या में भी इसी अवधि में 97 प्रतिशत की कमी आई है। ज़ूलॉजिकल सोसायटी ऑफ़ लंदन के एंड्र्यू कनिंघम इस रिपोर्ट के सहलेखक भी हैं. वे कहते हैं, "इन दो प्रजातियों के गिद्ध तो 16 प्रतिशत, प्रतिवर्ष की दर से कम होते जा रहे हैं."

गिद्ध को धरती के सफाई सहायक के तौर पर जाना जाता है। इसलिए गिद्धों को न केवल एक प्रजाति के तौर पर बचाया जाना ज़रुरी है बल्कि यह पर्यावरणीय संतुलन के लिए भी ज़रुरी है। गिद्ध नहीं रहे तो आवारा कुत्तों से लेकर कई जानवरों तक मरने के बाद सड़ते पड़े रहेंगे और उनकी सफ़ाई करने वाला कोई नहीं होगा और इससे संक्रामक रोगों का ख़तरा बढ़ेगा.


(फोटो गूगल से)

05 November 2008

हमें क्यों पसंद हैं ओबामा?



राष्ट्रपति पद पर ओबामा की जीत अमेरिका के लिए नये युग की शुरुआत है और हम सब की निगाहें भी ओबामा पर टिकी हैं। हालांकि आउट सोर्सिंग और न्यूक्लियर डील जैसे मसलों पर ओबामा की राय भारत के लिए सकारात्मक नहीं रही पर फिर भी ओबामा में अपनापन झलक रहा है। वजह, उनका अश्वेत होना? दुनिया के सबसे शक्तिशाली पद पर उस समूह का एक शख्स काबिज़ हो रहा है जो नस्लभेद का शिकार रहा, सदियों तक ग़ुलामी झेली, अपेक्षाकृत कमज़ोर वर्ग का प्रतिनिधि। क्या इसीलिए हम ओबामा से ज्यादा निकटता महसूस कर रहे हैं? ओबामा के रुप में अहंकारी अमेरिका की छवि भी टूटती है इसलिए भी शायद उनके खाते में ज्यादा समर्थन आया।

ओबामा के साथ-साथ हिलेरी क्लिंटन की दावेदारी ने भी अमेरिकी राष्ट्रपति पद के चुनाव को इस बार ख़ास बना दिया था। मान लीजिए ओबामा सीन में नहीं होते, हिलेरी और मैक्केन आमने-सामने होते तब शायद हिलेरी के पक्ष में जनता जाती? फिर बुश की नीतियां भी रिपब्लकिन पार्टी के लिए हार की वजह बनी। ओबामा में अमेरिकी जनता को भी नई संभावनाएं दिख रही होंगी और दुनिया के दूसरे देशों को भी।

ओबामा नए हीरो की तरह लग रहे हैं। अमेरिका का बाज़ार पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है। अमेरिका के राष्ट्रपति के फैसले पूरी दुनिया पर असर डालते हैं। इराक-अफगानिस्तान जैसे तमाम उदाहरण हमारे पास हैं। तो अमेरिका के नए राष्ट्रपति पर पूरी दुनिया की निगाहें तो होंगी ही। दुनियाभर में उनकी जीत का जश्न भी मनाया जा रहा है। जरूरी नहीं कि ओबामा की नीतियां भी भविष्य में लोगों को पसंद आएं पर फिलहाल ओबामा तो पसंद आ रहे हैं।

हो सकता है आनेवाले वक़्त में हमारे यहां भी ओबामा सरीखा परिवर्तन हो। यूपी की मुख्यमंत्री मायावती जैसे नेताओं की दावेदारी इस उम्मीद को जरूर आगे बढ़ाती है। हां लेकिन धर्म-जाति-क्षेत्र-भाषा जैसे मुद्दों पर हमारी तू-तू-मैं-मैं खत्म होगी? लगता नहीं है।

(चित्र बीबीसी से साभार)

30 October 2008

"खाली वक़्त हो तभी पढ़ें"

खाली दिमाग़ शैतान का घर होता है और शैतान का घर तो उसका होता ही है। आजकल खाली बैठे-बैठे दिमाग़ भी खाली ही रहता है। खालीपन पर ही ख्याल भी आए। मेरी एक महीने की छुट्टी इतनी सता रही हैं कि तारीखें पता नहीं रहती और दिन याद करने के लिए कोई मौका याद करना पड़ता है। जो बेरोज़गार हैं या जिनकी नौकरी चली गई है उनकी तकलीफ का तो अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता। इन दिनों एक और सज्जन से मुलाक़ात होती रही जो बीमारी की वजह से नौकरी मुक्त हैं हालांकि ज़िंदगी में वो काफी व्यस्त हैं और एक दोस्त का ख्याल आया जिसकी नौकरी एक दुर्घटनावश चली गई, उसने दीपावली पर मुझे शुभकामनाएं भेजी। सारे खाली ख्यालों की मैंने निम्न पंक्तियों में खाल उधेड़ दी।
अब चेतावनी- खाली वक़्त हो तभी पढ़ें।


मेरे लिए
कोई सोम-मंगल-बुध नहीं होता
मेरे लिए
महीने की पहली तारीख हो
या आखिरी
क्यों फर्क नहीं पड़ता
मेरी रात कई टुकड़ों में होती है
दोपहर-शाम
नींद जब भी आ जाती है
मेरे लिए
सपने, दुख देते हैं
ख्वाहिशें, मुश्किलें
घर, काटता है
सड़कें,भटकाती हैं
दोस्त,सवाल पूछते हैं
मां, मायूस होती है
मैं शांत रहता हूं भरसक
कम से कम
कोशिश तो करता हूं पूरी

21 October 2008

"फोर लिक्विड स्टेजेस ऑफ लाइफ"

ये तस्वीर मुझे ई-पते पर एक दोस्त ने भेजी। मज़ेदार और सच्ची है, इसलिए आप भी देखें।

17 October 2008

लो मैं आ गई

जैसा कि सैनी साहब(धीरेश सैनी) बता ही चुके हैं कि मैं होटलनुमा अस्पताल से लौटी हूं। कुल जमा एक हफ्ता मैं अस्पताल में रही। जिसमें से दो दिन तो बेहोशी भरी नींद की वजह से मिस हो गए। बाकी अस्पताल के एक बंद कमरे में मुझे कई तरह के एहसास हुए।
कमरे की खिड़की से पर्दा हटाकर सड़क पर भागती गाड़ियों को देखकर ज़िंदगी का एहसास होता था। धूप-पसीना-तेज़ हॉर्न-ट्रैफिक की झल्लाहट सड़क पर चलते हुए ऐसा ही तो लगता है लेकिन अस्पताल के कमरे से ये सबकुछ सोचकर अच्छा लगता है। ज़िंदगी है तभी तो धूप है, पसीना है, भीड़ है, भागमभाग है। जिससे पीछा छुड़ाने के लिए हम हमेशा कुछ न कुछ योजनाएं बनाते रहते हैं, हम नहीं मैं, पर अस्पताल के एक कमरे में दो दिन बिताने के बाद इन सारी चीजों में जल्दी से जल्दी वापस लौटने के लिए दिल मचल रहा था।

एक और ख्याल मुझे आया। अस्पताल के एक कमरे में छे दिन बिताना इतना मुश्किल लग रहा था, जिन्हें उम्र क़ैद जैसी सज़ा मिली होती है वो कैसे रहते होंगे जेल में। मुझे तो मालूम था मैं यहां कुछ दिनों की मेहमान हूं पर जिन्हें पता है कि सारी ज़िंदगी जेल की बंद चारदीवारी के बीच गुजरनी है, उनका अपराध, उनकी सज़ा। मुझे डॉमनिक लॉपियर की एक हज़ार सूरज किताब के कैराइल चैसमैन की याद हो आई। जिसे मृत्युदंड मिला होता है और जेल में वो ज़िंदगीभर मृत्युदंड की सज़ा को माफ करने के लिए लड़ता है, कई बार उसकी सज़ा टलती है, आखिरी बार भी, लेकिन तब कुछ सेकेंड के अंतराल का फासला बड़ा हो जाता है, उसे इलेक्ट्रिक चेयर पर मौत की नींद सुला दिया जाता है।

अस्पताल से जुड़ा एक मज़ेदार अनुभव भी है। आगंतुकों का मेरे कमरे तक आना। दरअसल अस्पताल में मिलने के लिए समय की पाबंदी थी। पर मिलने आनेवालों को समय का पता नहीं था और था भी तो तोड़ने का जुगाड़ तो निकाला ही जा सकता था। विजिटर टाइम के अलावा कमरे में सिर्फ एक अटेंडेंट ही रह सकता था। विजिटर कभी भी विजिटर टाइम पर नहीं आए। जुगाड़ भिड़ाने के लिए सिक्योरिटी गार्ड से काफी जोड़तोड़ करनी पड़ती। कुछ फैमिली टाइप लोगों को तो सिक्योरिटी ने अंदर आने भी दिया, लेकिन जिनकी शक्ल उन्हें फैमिली टाइप नहीं बता रही थी, या जो अकेले आए, उन्हें बिना मेरा हालचाल जाने बगैर लौटने का महान सुख हासिल हुआ। सिक्योरिटी गार्ड को पटा कर अंदर घुस आने में मेरी बहन जी ने महारत हासिल कर ली थी और उसी की कृपा से कुछ आगंतुक मेरा हालचाल पा लेने में और मुझे जल्दी से अच्छा हो जाने का आशीर्वाद देने में क़ामयाब भी हुए।

अब मुझे लग रहा है कि मैं कीबोर्ड पर और ज्यादा खिटखिट करती रही तो मुझे अस्पताल वापस न जाना पड़ जाए। वैसे भी बहुत लंबा टीप लिया है। तो बाय-बाय।



13 October 2008

औरतों की कवितायें (1)

`औरतों की कवितायें` शीर्षक से शुभा की कई कवितायेँ भारत ज्ञान विज्ञान समिति ने छापीं थीं. इन कविताओं का पाठ महिलाओं को संगठित करने के आंदोलनों में बहुत बार हुआ है और अक्षर सैनिकों और नवसाक्षरों ने भी इनका बार-बार उपयोग किया है. इस सीरीज़ की कवितायेँ एक-एक कर आप भी पढ़ पाएंगे. बकौल कवयित्री `ये कवितायेँ औरतों के दुखों, उनकी मेहनत और उनके इंसानियत के बारे में हैं. उनकी मेहनत और दुखों को अभी बहुत कम पहचाना जाता है.`
औरतें
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औरतें मिट्टी के खिलौने बनाती हैं
मिट्टी के चूल्हे
और झाँपी बनाती हैं

औरतें मिट्टी से घर लीपती हैं
मिट्टी के रंग के कपडे पहनती हैं
और मिट्टी की तरह गहन होती हैं

औरतें इच्छाएं पैदा करती हैं और
ज़मीन में गाड़ देती हैं

औरतों की इच्छाएं
बहुत दिनों में फलती हैं

10 October 2008

एक निवेदन

वर्षा मेरी दोस्त, मेरा मतलब कुछ टेढ़े किस्म की दोस्त फिलहाल अस्पताल नाम के एक होटल में हैं। उसका आज सुबह कामयाब ओपरेशन हो चुका है। उसे ब्लॉग की दुनिया में लौटने में कुछ वक्त लगेगा। उसके पति और हम दोनों के कोमन दोस्त राजेश डोबरियाल यानि सोत्डू मियां की साजिश के बावजूद कुछ दिन इस ब्लॉग पर मैं वर्षा की दिलचस्पी का ध्यान रखते हुए कुछ अच्छी रचनाएँ खासकर स्त्री विमर्श से जुड़ी चीजें पोस्ट करता रहूँगा। पहली पोस्ट कल डालूँगा।
-धीरेश

01 October 2008

बम-शम तो अब फटते रहते हैं

अमां यार जबसे हम तुम्हारे फोन का इंतज़ार कर रिये हैं। चलना है तो बताइये।
अरे वो हम टीवी देखने बैठे थे, तभी ख़बर आ गई की दिल्ली में फिर बम फूट रहे हैं, बस वही देखने लग गए।

अजी छोड़िये। ये बम-वम फूटे तो फूटे। लड़के के एडमिशन के लिए यूनिवर्सिटी के एक बाबू जी से बात करनी है। आप तो जानते ही हैं बातचीत में हम उतने चपल हैं नहीं। इसीलिए आपको बार-बार पूछ रहे हैं। तो क्या कहते हैं आप चलेंगे क्या।

हां चलते हैं, दरअसल वही ख़बरिया कि कोई तो कह रहा है कि 14-15 लोग मर गए, कोई चैनल कह रहा है कि 24-25।
अरे अब आप इन चैनलों के चक्कर में न पड़ें और न इन धमाकों के। जितना इनसे जुड़ेंगे उतना ही ये सतावेंगे। अभी 14 कह रहे हैं दस मिनट बाद 34 भी कह सकते हैं और फिर खुद ही उसमें से दस घटा के 24 पर ले आएंगे, ये सब गोलमोल करते रहते हैं और धमाकों का क्या है, आज यहां बम फूटा है कल वहां फूटेगा। आप बस तैयार हो जाइये हम आ रहे हैं।

हां बस थोड़ी देर में चलते हैं ये ख़बर देख लें ज़रा।
अरे अब आप भी। पहले साल दो साल में धमाके होते थे तो ज़रा हम भी देख लेते थे, अब तो रोज़-रोज़ बम फोड़े जा रहे हैं, अब किसके पास टाइम है सारा वक़्त टीवी से चिपके रहने का। या फिर ये सोचने का कि कहीं हम मारे जाते तो। जब मरेंगे तब मरेंगे।
हां अब देखिये बम एक जगह फूट रहा है अफवाहें सौ जगह आ रही हैं।
तभी तो कह रिये हैं, बम-शम फटना तो अब रोज की बात हो गई है।

हां चलिए हम निकलते हैं, आप बस हमारी वाली चाय तैयार रखिएगा।
ये हुई न बात।

25 September 2008

धिक्कार है

एक एसएमएस टहलता-टहलता मेरे मोबाइल के इनबॉक्स में भी आया। आप भी पढ़ें-

" दिल्ली पुलिस का एक जाबांज़ इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा आतंकवादियों से लड़ते हुए चार गोलियां सीने पर खाकर शहीद हुए। मिला क्या ? पांच लाख रुपये।

युवराज ने छे छक्के मारे तो एक करोड़ मिला

बीजिंग में जीते खिलाड़ियों ने भी लाखों नहीं बल्कि करोड़ से ज्यादा कमाए
(बिंद्रा-4 करोड़ से ज्यादा, सुशील दो करोड़ से ज्यादा, विजेंद्र को लाखों रुपये इनाम मिले, साइना को क्वालीफाई करने पर ही 25 लाख रूपये इनाम मिले)

डेंगू से बीमार बेटे को छोड़ कर ड्यूटी पर शहीद हो जाए तो सिर्फ 5 लाख
(सुधार: 5लाख रुपये उत्तराखंड सरकार ने और दिल्ली सरकार ने 11लाख रुपये दिए(इसमें उनकी ग्रेच्युटी वगैरा शामिल है))

धिक्कार है "

20 September 2008

थोड़ा सा प्लास्टर ऑफ पेरिस और वो मुस्कान

कॉलेज के वक़्त की बात है। लखनऊ के हजरतगंज बाज़ार से गुज़र रही थी। तभी मेरी नज़र एक लैंपशेड पर पड़ी। जो दरअसल एक छोटा सा sculpture था, एक औरत का। उस औरत के चेहरे पर हल्की सी प्रसन्न मुस्कान थी, सौ फीसदी संतुष्टि का भाव जो किसी आम इंसान के चेहरे पर देखने को कम ही मिलता है (ये सारे भाव भी लिखने के साथ ही समझ में भी आ रहे हैं)। औरत की मूर्ति के ऊपर एक छोटा सा लैंपशेड बना हुआ था। बहुत ही सुंदर।
तब जेब में पॉकेटमनी के पैसे ही हुआ करते थे। डेढ़ या दौ सौ रूपये का लैंपशेड रहा होगा। मैंने उसे बहुत ग़ौर से देखा और न खरीदने का फैसलाकर घर वापस आ गई। पर बहुत देर तक वो लैंपशेड मेरे अंदर खलबली मचाता रहा। उसे खरीदने के बारे में नहीं सोच रही थी पर बहुत बेचैनी हो रही थी। घर से पैसे मांगने का सवाल ही नहीं उठता था। खरीदने का ख्याल बार-बार दिमाग़ से झटक दे रही थी, पॉकेटमनी का एक बड़ा हिस्सा खर्च करना पड़ता, तब पॉकेटमनी बहुत कीमती हुआ करती थी।
पर आखिरकार मन के आगे झुक ही गई। थोड़ी देर बाद स्कूटर उठाया, बहन को साथ लेकर उसी दुकान पर पहुंच गई। लैंपशेड लिया और ड्राइंग रूम के एक कोने में उसके लिए जगह बना दी। कुछ दिनों तक बार-बार जाकर उसे झांक भी आती। धूल का कतरा भी होता तो झट साफ करती। फिर धीरे-धीरे उससे ध्यान हटता गया। औरत की उस सुंदर मूर्ति पर धूल का कतरा क्या एक पूरी मोटी परत चढ़ गई थी। मन शायद उससे भर गया था। कई बार कुछ सेकेंड्स के लिए दिमाग कुलबुलाता भी था, इसे लेने के लिए मैं कितनी उतावली थी और अब कभी ध्यान ही नहीं जाता। उसे लेने का उतावलापन-बेचैनी और छोड़ देने की बेरुख़ी दोनों मुझे हमेशा अजीब लगते रहे, कई बार।
इस बार लखनऊ गई थी तो उस लैंपशेड का शेड उखड़ चुका था। पर प्रसन्न मुस्कान के साथ औरत की मूर्ति सलामत थी। उसकी पुरानी जगह भी छिन चुकी थी। उसे बाहर वेस्टेज वाले कोने में डाल दिया गया था। एक बार को मन किया कि उसे अपने साथ ले आऊं पर लाई नहीं। वो पुराना ख्याल फिर आया। औरत की मूर्ति वाले लैंपशेड को लाने की बेचैनी और फिर बेखयाली। अब भी प्लास्टर ऑफ पेरिस पर गढ़ा गया वो चेहरा, उस पर उकेरी गई मुस्कान मेरे ज़ेहन में समायी हुई है, अजीब भाव के साथ।
(चित्र गूगल महाराज की कृपा से)

15 September 2008

लेटर फ्रॉम दि प्रिसाइडिंग एंजेल

लेटर फ्रॉम दि प्रिसाइडिंग एंजेल
स्वर्ग से प्रध्रान फरिश्ता एक कोयला व्यापारी को पत्र लिखता है- हम सार्वजनिक प्रार्थना, जैसे चर्च की, को कम नंबर देते हैं। अधिक नंबर देते हैं मन की गुप्त प्रार्थना को। तुमने चर्च में प्रार्थना की प्रभु, सब लोग सुखी हों पर घर पर तुमने मन से प्रार्थना की, कि प्रभु मेरे प्रतिद्वंदी कोयला व्यापारी का जहाज़ आ रहा है। तू तूफान उठा दे जिससे वो डूब जाए। तुम्हें सूचित किया जाता है कि तूफान अभी स्टॉक में नहीं है। फिर भी हम किसी तरह उसका कुछ नुकसान करेंगे।
तुमने चर्च की प्रार्थना में तो कहा कि प्रभु सब मनुष्य सुखी हों। पर घर में मन में कहा- मेरा यह पड़ोसी दुष्ट है। मुझे तंग करता है, इसे मौत दे दें। तुम्हें सूचित किया जाता है कि मौत सबसे बड़ी सज़ा है। वो उसे नहीं दी जा सकती। तुम्हारे संतोष के लिए हम उसे निमोनिया देते हैं।
(हरिशंकर परसाई की किताब आवारा भीड़ के खतरे से ये टुकड़ा उठाया है। अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन के इस व्यंग का उन्होंने ज़िक्र किया। ऑफिस की एक घटना में इस टुकड़े की याद हो आई थी।)

चले जा रहे हैं...चले जा रहे हैं





हम (यानी भारतीय) संख्या में इतने ज्यादा है, हर चीज बांट-बांटकर खानी ही पड़ती है। रोटी भी, दुख भी, दर्द भी, ख़ुशी भी और वक़्त भी। अगर किसी सरकारी दफ्तर या बैंक जैसी जगह जाते हैं तो हम एक लंबी कतार में घंटों खड़े रहते हैं, इंतज़ार करते हैं, करना पड़ता है (इसमें बिना कतार के घुस जानेवाले और कोई चक्कर चलाकर अंदर ही अंदर काम करा लेनेवालों की बड़ी संख्या को घटाना भी है)। च्च्च...च्च्चचचचचच। हर कोई बेचारा महसूस करता है, पर एक अरब से ज्यादा आबादी वाले देश में ये कोई समस्या नहीं, आम बात है, हमारी आदत है। बस स्टैंड पर भीड़, सड़क पर भीड़, peack hour में तो भीड़ ही भीड़। सड़क पर रेंगती चलती गाड़ियां, एक दूसरे को हॉर्न बजाकर परेशान करते ड्राइवर, भीड़ को कोसते, जबकि वो खुद भीड़ का हिस्सा ही तो हैं। हमें डॉक्टर के पास जाना हो तो बीमारों की लंबी कतार, घंटों इंतज़ार, घर में ही डिसप्रिन-विसप्रिन खाकर हर बीमारी को टाले जाने की हद तक टालते हैं। शनिवार-रविवार हमसब मॉल में जाते हैं, शॉपिंग करें न करें मस्ती खूब होती है और मॉल ठसाठस भरा हुआ। वहां भी कतार में लगकर एंट्री होती है। खरीदारी करने से ज्यादा वक़्त बिल चुकाने के लिए कतार में लगकर जाया होता है। अगर कहीं ऑफर-सॉफर मिल रहा तो बैंड बज गया बीड़ू। फिर तो लोग टूट पड़ेंगे, जाने कहां छिपे रहते थे, अचानक इतने ज्यादा लोग दिखने लगते हैं। इसका मतलब ये नहीं कि हम सिर्फ मॉल में ही जाते हैं, हम सोम-मंगल बाज़ार में भी ऐसे ही टहलते हैं, धक्कमधुक्की करते हुए। अब गलती से कहीं जाना पड़ गया तो दो-तीन घंटे तो हम बस के इंतज़ार में भीड़ को बनाते हैं, कई बसों को छोड़ना होता है किसी बस में बड़ी मुश्किल से दो सीट मिल पाती है, और एक ठंडी आह!!!! ट्रेन में तो दो-तीन महीने पहले रिजर्वेशन करा लो तभी ठीक है बाकि प्लेटफॉर्म पर तो भिड़ना-भिड़ाना होगा ही। प्लेन में उड़ने वालों की संख्या भी कम नहीं। हम किसी बड़े रेस्तरां में जाते हैं और वेटर को आवाज़ लगाते रह जाते हैं, गुस्साते हैं, सौंफ चबाते हैं। हमारे चलने के लिए ज़मीन कम पड़ गई है, रहने के लिए घर। बहुमंज़िला इमारतें खड़ी होती जा रही हैं, एक-एक कमरे का फ्लैट लाखों में बिक रहा है, तीन कमरे वाले फ्लैट तो करोड़पति ही ले सकते हैं। फिर भी हम मजे से जी रहे हैं। क्या करें जीना ही पड़ेगा। अब कतार का रोना लेकर जीना तो नहीं छोड़ सकते। महंगाई की तरह हम भी संख्याबल में बढ़ते ही जा रहे हैं। जा रहे हैं। हम चले जा रहे हैं, चले जा रहे हैं....... (आज का दिन कतारों में ही गुजरा, इसीलिए ये दुखांत, फोटू गूगल से साभार)

07 September 2008


दीदी को लंबा करो। दीदी को मोटा करो। दीदी को गोरा करो। अरे कोई है जो दीदी की बात सुन रहा है। एक कंपनी है। जो दीदी की बात सुन रही है। छे-सात साल का बच्चा पूरी रेलयात्रा के दौरान मेरे पीछे वाली सीट पर ऐसे ही उधम मचाता रहा। अपनी दीदी के बारे में ऐसे ही मज़ेदार फिकरे कसते हुए फिक्र करता रहा। उससे साल-दो साल बड़ी दीदी किसी तरह गुस्से को पीती रही। वो उसका पीछा छोड़ने को तैयार नहीं था और दीदी किसी भी तरह उसे दूर धकेल देना चाहती थी। पूरे सफ़र के दौरान दोनों के बीच विश्वयुद्ध होता रहा। ज्यादातर बाज़ियां दीदी के ही नाम रहीं। बड़ी भी थी और छुटके को मां-बाप की डांट ज्यादा पड़ती होगी। हालांकि मां-बाप बच्चों के इस विश्वयुद्ध पर ध्यान नहीं दे रहे थे। लेकिन मेरे बगल में बैठी महिला कोफ्त खा रही थी। उफ्फफ, ओहहहहो, कैसे बच्चे हैं....। मैं तो बीच-बीच में नींद के टुकड़े बटोर ले रही थी। लेकिन बच्चों के नटखट शोर में उसे नींद नहीं आ पा रही थी। तभी बच्चों की टीम की ओर से अखबार का एक बंडल खटाक हमारी तरफ आकर गिरा और मेरी गर्दन पर कराटे चॉप की तरह पड़ा। उस वक़्त मुझे गुस्सा आया। मैंने पलटकर देखा तो सब शांत हो गए। फिर हंगामा चालू। वैसे मुझे उनकी बातें और झगड़े दोनों अच्छे लग रहे थे। गुस्सा चला गया। लेकिन बगल की सीटवाली महिला को ट्रेन से उतरने के बाद ही तसल्ली मिली। इस बीच दोनों बच्चों के बीच का विश्वयुद्ध इतना बढ़ गया कि माता जी को हस्तक्षेप करना ही पड़ा। छोटे मियां ज़ोर-ज़ोर से रो रहे थे, मम्मी पूछ रही थी झगड़े की शुरूआत किसने की। थोड़ी देर के लिए ख़ामोशी आई और फिर हंगामा चालू। दीदी के गाल में कुछ काला है। दीदी को लंबा करो, दीदी को.....
{चित्र गूगल से साभार}

30 August 2008

दो दोस्त भी न मिले ज़फ़र हैप्पी बड्डे कहने के लिए


काश किसी ने उन्हें हैप्पी बड्डे कह दिया होता, भई जनम वाले दिन में कुछ तो ख़ास बात होती है। ये जानते हुए की उम्र का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है ज़ेहन में हफ्तेभर पहले से ही सुरसुरी सी चालू हो जाती है। पुराने जन्मदिन, पुरानी पार्टियां, पुराने दोस्त, पुराने तोहफ़े, पुराने किस्से सब याद आने लगते हैं और जन्मदिन से उम्मीदें भी बढ़ जाती हैं। लेकिन अब वो पहलेवाली बात कहां रही। फोन टनटनाता है तो लगता है जरूर किसी ने बधाई देने के लिए फोन किया है। अब दुनिया में आए हैं तो बधाइयां तो लेनी पड़ेगी। धत् तेरे की। कॉल तो जाने कौन सी क्रेडिट कार्ड कंपनी की ओर से थी।। हलो, हमने आपका नाम सलेक्ट किया है, हमारा क्रेडिट कार्ड लीजिए, बदले में ये मिलेगा-वो मिलेगा....। बड़ी भारी आवाज़ में न कहते हुए फोन कट किया और भारी हो चले मन को समझ का टॉनिक पिलाकर हलका करने की कोशिश की। फिर मोबाइल का मैसेज बॉक्स चेक किया। क्या पता किसी का एसएमएस आया हो और पता न चला हो, एक भी विश नहीं। मोबाइल फेंक दिया। अब इस उमर में जन्मदिन की बधाई भला कौन देता और फिर बधाइयों की उम्मीद ही क्यूं। खुद को न समझाएं तो करें क्या। थोड़ी देर बाद फिर मोबाइल घनघनाया। उम्मीदों को किनारे सरकाते हुए फिर हाथ बढ़े फोन की ओर, होगा किसी ऐरे-गैरे का फोन। हलो! मां, हां, थैंक्यू, अब इस उमर में क्या जन्मदिन मनाना, हां-हां केक खरीदकर खा लूंगा, अच्छा-अच्छा सेलीब्रेट भी कर लूंगा, हां चला जाऊंगा अकेले ही कहीं घूमने, तुम भी मेरी तरफ से लड्डू खा लेना, हां मां ठीक है, चलो रखता हूं फोन। एक मां ही तो थी जो दुख-सुख का ख्याल रखती थी। फ्रिज खोलकर कल के रखे स्वीटकॉर्न का डोंगा उठाया और खाली पेट को भरने की कवायद शुरू, टीवी भी ऑन ही था, पर देखा कुछ नहीं जा रहा था। इतनी मायूसी छाई थी। दो-चार फोन ऑफिस से आए। मगर किसी ने जन्मदिन की बधाई न दी। किसी को मालूम ही न था। मन कर रहा था चीख-चीख कर बता दूं आज जन्मदिन है मेरा, मुझे बधाई दो, happy b'day तो कहो। मन उलटपुलट कर रह गया, पुराने तोहफो को याद करने लगा, दो साल पहलेवाले जन्मदिन पर बारिश में की गई लॉन्ग ड्राइव की याद आई। वो भी क्या दिन थे। उस एक दिन ही तो पूरी आज़ादी मिलती थी घर में। चाहे कुछ करो, कोई रोकने-टोकनेवाला नहीं, यार-दोस्तों के ठहाके और....। पुरानी यादों को खींच कर दिमाग़ से फेंकने की कोशिश और तकिये में सिर घुसा कर नींद का आह्वान। पर नींद भी कैसे आती। फिर घंटी बजी। फोन की नहीं दरवाजे की। फूलों का गुलदस्ता आया था। हैप्पी बर्थडे लिखा हुआ था। मेरे लिए था। रो पड़नेवाली मुस्कान आई। ये तो वाकई मेरे लिए ही आया है। किसने भेजा है। कार्ड पर नाम नहीं लिखा। किसका होगा। दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगे, कौन-कौन-कौन। फिर बुके में लगे व्हाइट ग्लैडोलियस को रेशमी नज़रों से देखा। आह!

06 August 2008

ऐसा नेता चाहिए?

(ये चित्र मुझे ई-मेल पर मिला, अवेयरनेस कैंपेन के तहत, आप भी देखें, जागें)





28 July 2008

अगर कहीं मैं तोता होता

अगर कहीं मैं तोता होता
तोता होता तो क्या होता ?
तोता होता।
होता तो फिर ?
होता 'फिर' क्या?
होता क्या?
मैं तोता होता।
तोता तोता तोता तोता
तो तो तो तो ता ता ता ता
बोल पट्ठे सीता राम
(रघुवीर सहाय की एक कविता...एक पहेली)

27 July 2008

तस्वीरें कहती हैं, शब्दों से कुछ ज़्यादा

(ये तस्वीर मुझे ई-मेल पर मिली, अच्छी लगी, इसलिए ब्लॉग पर भी चिपका रही हूं)

26 July 2008

गृहणी, अन्नपूर्णा,घरवाली...

भारत परमाणु करार पर दस्तखत करेगा या नहीं, पाकिस्तान इसके विरोध में है, चीन इसके पक्ष में हैं, बैंगलोर में सीरियल ब्लास्ट, फिर अहमदाबाद में सिलसिलेवार धमाके, कभी न रुकनेवाली घटनाएं, हमेशा कुछ ऐसा होगा कि हम चौंक जाएंगे, या विचारों की जुगाली करेंगे, पर जो लोग बड़े मुद्दों पर बड़ी बातें नहीं करते, जिनकी समस्या घर की कामवाली के न आने से शुरू होती है, प्याज़ के आंसू जिन्हें रूलाते हैं, सिंक में पड़े बर्तन जिनकी खीज बढ़ाते हैं, रोटी सेंकता गरम तवा जिनके माथे पर पसीना टपकाता है ,
सब्ज़ी में नमक कम पड़ जाने पर जो खुद को माफ नहीं कर पाती, जब तक कि एक स्वादिष्ट सब्ज़ी नमक की उस याद को भुला दे, जो दिन भर अपने पति का इंतज़ार करती है, जो तय समय पर कभी नहीं आता, जिनका दिन अपने बच्चे को स्कूल भेजने और उसका होमवर्क पूरा कराने में गुज़रता है, जो देशहित के बड़े मुद्दों पर बात नहीं करती, घर की छोटी-छोटी समस्याओं की टेंशन में जीती हैं, हमारे समाज में, हमारे देश के विकास चक्र में, हमारी अर्थव्यवस्था में, उनका उतना ही योगदान है, जितना उनका जो इस दिशा में बहस, बातें और काम करते हैं, या महसूस करते हैं कि वो ऐसा कुछ कर रहे हैं, या फिर वाकई ऐसा कुछ कर रहे हों। उन तमाम लोगों, ख़ासतौर पर उन तमाम महिलाओं को उनके हिस्से का सम्मान नहीं मिल पाता। जबकि उनका काम बहुत मुशिक्ल होता है। जिसमें उनकी पूरी ज़िंदगी खर्च हो जाती है।

24 July 2008

तो ये क्या कुछ कम है

इस गहराई में आकर महसूस किया
ऊंचाई तो बहुत दूर है
अगर कोशिश कर
समतल को ही पा लें
तो ये क्या कुछ कम है
सागर मंथन में विष-अमृत
क्या कुछ नहीं निकला
हम भी आत्ममंथन कर लें
मन के सागर के
अमृत को पा लें
अपने ज़हर को पी लें
तो ये क्या कुछ कम है
बहती नदियां,बहती हवा
पर्वत डटा हुआ
न बहें हम, न सही
न डटें हम न सही
औंधे लेटे हुए हैं
सीधा खड़ा होकर
गीत मधुर कोई गा लें
तो ये क्या कुछ कम है

19 July 2008

...54 साल बाद

मचांग को याद नहीं कि कब उसकी जवानी परवान चढ़ी, कब बुढ़ापे ने दस्तक दी, कब चेहरा झुर्रियों में खो गया और कैसे सीधी तनी रीढ़ झुकती चली गई। पिछले चौवन सालों से उसकी ज़िंदगी में गिनती की कुछ चीजें हैं.... जेल की सलाखें, एल्यूमिनियम की टेढ़ी-मेढ़ी प्लेट, टूटा गिलास, दो जोड़ी कैदी की वर्दी, एक फटा कंबल। ऐसी ही कुछ और चीजें आप अपनी समझ से इनमें जोड़ सकते हैं। पिछले चौवन सालों में उसने कोई लंबी दूरी तय नहीं की, सलाखों से अंदर कुछ कदम अंदर और कुछ कदम बाहर उसने बार-बार, बार-बार नापे हैं। इन्हें चंद कदमों में उसकी दुनिया शुरु भी होती है, खत्म भी हो जाती है। पिछले चौवन सालों में उसकी कल्पनाएं भी जेल के मैदान से दिखने वाले आकाश जितनी सीमित हो गई। उसके लिए तो आकाश सिर्फ उतना ही है जितना जेल के अंदर से दिखता है। आज वो सतहत्तर साल का है। चौवन साल बाद आज उसे आज़ादी मिली है। मचांग सोचता है... जब वो जेल आया होगा उसकी उम्र क्या रही होगी। वो हिसाब नहीं लगा पाता, पर हम सब इतना हिसाब तो लगा ही सकते हैं। मचांग को अपने घर की याद है, मां-बाप की याद है, मां के हाथ बनी रोटियों की और पिता की फटकार की भी याद है। पर उसे ये याद नहीं कि उसके भाई-बहनों की संख्या ठीक-ठीक कितनी होगी। शायद उसे छोड़कर चार और... नहीं-नहीं छोटी को तो मै भूल ही गया..शायद पांच लेकिन एक भाई तो शायद बचपन में ही बीमारी के बाद चल बसा था। तो अब चार। लेकिन जब वो जेल गया था तो मां की गोद में एक नन्हा बच्चा था, उसे भी जोड़ लें तो हुए पांच। मचांग अपने भाई-बहनों की सही संख्या का अनुमान तक नहीं लगा पाता। आज आज़ादी मिली है लेकिन क्या करे इस आज़ादी का, कहां जाएं, किससे मिलें, क्या किसी को उसकी याद होगी, मचांग सोचता है। मचांग को तो कोई अफसोस नहीं कि वो इतने बरस जेल में रहा क्योंकि जेल के अंदर इतने बरस ने अनुभूतियां छीन लीं, सुख-दुख में भेद छीन लिया, उसके लिए तो जो हो रहा है इसलिए हो रहा है क्योंकि वो होना है। उसे कोई अफसोस नहीं लेकिन ये जानकार शायद आपको अफसोस होगा। मचांग को तो ये ठीक-ठीक याद भी नहीं कि वो जेल क्यों लाया गया था। जेल आने के कुछ सालों तक तो याद रहा होगा लेकिन अब वो उसकी यादें भी गडमड हो गई हैं। हमें ये तो पता है कि मचांग को जेल क्यों लाया गया लेकिन इतने बरस क्यों जेल में क्यों रखा गया ये न पूछिये। पुलिस के पास भी इसका आपराधिक रिकॉर्ड तो दूर मुकदमे की कार्रवाई तक के कोई रिकॉर्ड नहीं हैं। अगर कानून की भाषा में बात की जाए तो...। कोशिश करके देखते हैं। हुआ ये कि चौवन बरस पहले मचांग को खतरनाक हथियार से हमला करने के आरोप में <धारा 326 के तहत> गिरफ्तार किया गया। जिसकी अधिकतम सज़ा दस साल हो सकती है। तो हथियार रखने के आरोप में तेईस साल के मचांग को असम पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। बस इतना ही। उसके बाद मचांग पर कोई मुकदमा नहीं चला, कोई सुनवाई नहीं हुई, कोई सज़ा नहीं सुनाई गई। बस मचांग गिरफ्तार किया गया और जेल भेज दिया गया। पुलिस के दफ्तर में इस समय तेईस बरस पहले मचांग की गिरफ्तारी तक के कागज नहीं, क्या-क्यों-कैसे हुआ, कुछ पता नहीं। उस पर एक आरोप लगा लेकिन वो साबित नहीं हुआ क्योंकि किया नहीं गया। शायद आरोप साबित हो जाता तो भी बेहतर था लेकिन नहीं हुआ। हम-आप सिर्फ अफसोस जता सकते हैं लेकिन मचांग ने इस क्रूर हकीकत को जिया है। पुलिस के पास मचांग से संबंधित कोई रिकॉर्ड नहीं है। तब जिन अधिकारियों ने वो गलती की थी वो अब नहीं रहे। अब के अधिकारियों के लिए मचांग सिर्फ एक गलती है, भयानक गलती जो सुधारी नहीं जा सकती। ख़ैर ये तो बीती बात हुई। इंसान होने की एक अच्छी बात है कि चाहे दुख हो या सुख, वक़्त के साथ वो सब भूल जाता है। हां, वक़्त कुछ नहीं भूलता सब दर्ज़ करता चलता है। लेकिन यहां तो वक़्त भी मचांग को भूल गया, और मचांग वक़्त को। गांव की धूमिल यादें हैं, रास्ते भी धुंधलके में याद आते हैं। आज़ादी मिली है, ग़ुमनाम आज़ादी, मचांग सोच पाता है कि चलो उस धूमिल गांव और धुंधले रास्ते को खोजा जाए। सोचता है वो अपने गांव से कितनी दूर होगा, ये रास्ता कैसे पार किया जाएगा। बहुत दिनों बात मचांग कुछ सोच रहा है। उसकी दिमाग की शिराओं में इतने सालों बाद शायद पहली बार सोच के हार्मोन्स निकल रहे हैं। वो नक्शा बनाने की कोशिश करता है, नहीं बना पाता। मचांग की आंखों में एक चमक कौंधी जैसे तूफान के समय आकाश में बिजली कौंधती है। रेलगाड़ी...हां रेल जाती है उसके गांव। लेकिन कौन सी। मचांग राहगीरों से पूछना चाहता है लेकिन वो बोल नहीं पाता। इतने सालों तक वो कुछ नहीं बोला था। मचांग सामने एक बड़े से पेड़ की ओट में जाता है ताकि सड़क चलते लोग उसे देख न सकें। वो बोलने की कोशिश करता है। जबड़े को खींच कर कानों तक ले आता है, चेहरे-गले की रगें खिंच जाती हैं, ऊं-गूं-ऊं जैसी कुछ आवाज़ निकलती है, ज़ुबान हिलती है, गला अंदर तक दिखता है, लेकिन बोल नहीं पाता। इतने सालों बाद आंखों से आंसू निकले। पिछले चौवन सालों में मचांग कभी नहीं रोया। शायद ज़िदगी मचांग के शरीर में प्रवेश कर रही थी हालांकि उसका जिस्म अब 77 साल के एक बूढ़े का जिस्म है। एक जर्जर मकान की तरह जर्जर। लेकिन बांध से छोड़े गए पानी की तरह उसके जर्जर जिस्म में भी एक ज़ोरदार धमक हुई। हां, सच मानिए ये ज़िंदगी का ही प्रवेश था। मचांग एक बार फिर हरे पत्तों में और छिपकर बोलने की कोशिश करता है। गला खोलता है, ज़ुबान हिलाता है, फिर कोशिश करता है, फिर कोशिश करता है, फिर कोशिश करता है। म्म्म्म्मां...आआआ। कुछ ऐसी ही ध्वनि। कुछ हुआ शायद। हां उसके कानों ने उसकी ज़ुबान से निकले गडमड अक्षर सुने, वो सोचता है यानी शब्द बन सकते हैं। उसे अपने गांव का नाम याद है(.....)। वो बोलने की कोशिश करता है, ख़ुश होता है, रोता है। लेकिन हम अभी ख़ुश नहीं हो सकते। क्योंकि हमें अभी उसकी भाषा समझ नहीं आ रही, हां यदि शब्दों की जगह भावनाओं को सुनें तो कुछ सुनाई दे सकता है। बड़ी देर तक पेड़ के पीछे इस अभ्यास के बाद मचांग बाहर निकलता है। अब वो थोड़ा बदला सा लगता है। उसमें थोड़ा आत्मविश्वास है और पूरी ज़िंदगी। वो रास्ते भर बोलने की कोशिश करता है। कुछ-कुछ बोलता है। कुछ-कुछ नहीं भी। दो दिन इसी तरह एक सड़क किनारे गुज़र जाता है। मचांग को रेल की पटरियां दिखाई देती हैं, पटरियां पकड़ वो एक छोटे से स्टेशन तक पहुंच जाता है। दो दिन स्टेशन पर गुज़र जाते हैं, क्योंकि उसे नहीं मालूम कौन सी ट्रेन उसके गांव तक जाएगी। अब गांव और वहां के धुंधले रास्ते की तस्वीर उसके दिमाग में कुछ साफ हो रही है। वो तस्वीर को जोड़ कर एक पूरी फिल्म बनाने की कोशिश कर रहा है। उसकी इस फिल्म में एक पौधा बार-बार आता है। मचांग देखता है कि वो अपने कुछ दोस्तों के साथ वो पौधा रोप रहा है। उसे पानी दे रहा है। जानवरों से उसकी रक्षा कर रहा है। वो पौधा मचांग के दिमाग में अटक जाता है। उसे याद आ रहा है, उसने कल्पना की थी कि एक दिन ये पौधा बड़ा होकर पेड़ बनेगा। उसकी शाखाएं होंगी। शायद एक ख़ास मौसम में उसमें फूल भी लगते हैं। कौन सा मौसम। अचानक उसकी धमनियों में रक्त का बहाव तेज़ हो जाता है। यही मौसम। हां-हां यही मौसम। हमारे-आपके लिए अच्छी बात ये है कि मचांग की अनुभूतियां लौट रही हैं। ये अक्टूबर का महीना है,....ऋतु। मचांग अब अपने शरीर को छूकर गुज़रने वाली हवा को महसूस करने की कोशिश करता है। एक बार फिर उसकी आंखें चौंधियाती हैं। आप जानकर और ख़ुश होंगे वो हंसने की कोशिश करता है। देखिए वो हंस रहा है, हालांकि लोग उसकी हंसी समझ नहीं पा रहे। लेकिन शायद समझ जाएं। तभी अचानक उसके कानों में कुछ आवाज़ आती है।........एक भीड़ से आ रही थी वो आवाज़। कुछ लोग थे, कुछ नौजवान लोग। वहीं से आवाज़ आयी। एक बार वही शब्द। अरे यही तो वही शब्द है, उसके गांव का नाम। हां-हां यही शब्द तो उसके गांव का नाम है। प्लेटफॉर्म पर ट्रेन रुकती है। वो भीड़ ट्रेन में घुसने लगती है। मचांग डर जाता है उन लोगों को जाता देखकर। पता नहीं वो इस शब्द को दुबारा कब सुन सकेगा। शायद ये लोग उसके गांव के हों। वो अपनी पूरी शक्ति लगाकर सोचता है और पूरी समझ के साथ उस ट्रेन में उनके पीछे घुस जाता है। उसी भीड़ की बगल में डरा-सहमा बैठ जाता है। वो उस भीड़ से बात करना चाहता है। क्या बोले, गला फिर खोलता है। ट्रेन में वो चिल्ला भी नहीं पाता। ट्रेन चल पड़ती है। वो उनसे बातचीत की कोशिश करता है। डर जाता है। बात नहीं कर पाता है। कुछ दूरी की यात्रा के बाद वो एक बार फिर कोशिश करता है। उस भीड़ मे से जो सबसे सहज-विनम्र शक़्ल उसे दिखती है। वो उससे मुखातिब होता है। कुछ उलझे शब्द निकालता है और इस असफल कोशिश से इस बार उसकी आंखों में दुख के आंसू आते हैं। मचांग बोल नहीं पाता लेकिन उसका अंदाज़ा एक दम ठीक निकलता है। वो व्यक्ति वाकई सहज विनम्र था, उसने मचांग की तरफ दया भरी नज़र डाली। उसे लगा वो भूखा है तो अपने साथ लाए खाने में से एक रोटी उसकी तरफ बढ़ा दी। रोटी देखकर मचांग पहले तो कुछ समझ नहीं पाया। पिछले चौवन सालों से वो जेल की जली-कटी सख्त रोटियां ही खाता आया है। ये रोटी तो बहुत छोटी-मुलायम और खूबसूरत दिखती है। मचांग सोचता है क्या मै इसे खा सकता हूं। थोड़ी देर तक रोटी को घूरने के बाद वो उसपर टूट पड़ता है। सज्जन व्यक्ति उसकी भूख का अंदाज़ा लगाता है... वो कुछ और खाना उसकी तरफ बढ़ा देता है। भीड़ के कुछ साथी सो रहे होते हैं, लेकिन मचांग नहीं सोता। कहीं वो सो गया और ये लोग उतर कर चले गए तो। भरपेट खाने के बाद ख़ूबसूरत नींद की दस्तक के बावजूद वो नहीं सोता। सबकी नींद एक-एक कर टूटती है, वो मचांग को देखते हैं, इतनी देर ट्रेन के डिब्बे में बैठने के बाद और मचांग की हालत देखने के बाद उन्हें मचांग से सहानुभूति होती है। वे उससे बातचीत की कोशिश करते हैं, बातचीत सफल नहीं हो पाती लेकिन मचांग की निश्छल हंसी उन्हें भाती है। इस सफ़र की मंज़िल आ गई, भीड़ ट्रेन से उतर रही है। मचांग भी इनके साथ जल्दी-जल्दी उतरता है। इनके पीछे-पीछे चलता है। उस सज्जन व्यक्ति ने एक बार फिर मचांग पर निगाह डाली, पूछा- वो उनके पीछे-पीछे क्यों चल रहा है। मचांग उस शब्द को, अपने गांव के नाम को दुहराने की कोशिश करता है। आपको जानकर आश्चर्य होगा लेकिन इस बार वो अपने गांव का नाम उच्चारित कर लेता है। नौजवान पूछते हैं वो इस गांव को कैसा जानता है। वो इशारे से बताता है, ये मेरा गांव है। बार-बार, कई बार वो अपने गांव का नाम दुहराता है। नौजवान उसे अपने साथ ले जाते हैं। मचांग को रास्ते याद आते हैं। चौवन सालों का फर्क उसके गांव पर भी पड़ा है लेकिन ये गांव ज़्यादा नहीं बदला है। अचानक मचांग को वो रास्ता दिखता है जो उसके घर को जाता है, मचांग दौड़ पड़ता है, पूरी शक्ति के साथ। गिरता है, उठता है, दौड़ता है, रोता है, हंसता है और स्तब्ध रह जाता है। घर के बाहर जो पौधा उसने रोपा था। वो पेड़ बन गया है, उसकी शाखाएं फूलों से लदी हैं। वो उसका पेड़ है। मचांग उस पेड़ से लिपट कर रोता है। नौजवान उसे देख रहे हैं। ये उसका पेड़ है। कम से कम कोई तो है उस वक्त का, जो उसे पहचानता है। जिसे वो पहचानता है। लेकिन उसे अपना घर वहां नहीं दिखता। कहां होगा उसका घर और घरवाले। कोई बात नहीं पेड़ तो है। मचांग उसी पेड़ के नीचे रहता है। वहां से कहीं नहीं जाता। दो-तीन दिन बाद। एक लंबी रात के बाद एक सुबह आती है। मचांग हिलता-डुलता नहीं बस सोता है, चौवन सालों से भी लंबी नींद। मचांग सो चुका है। गांव की भीड़ इकट्ठा है। मचांग की पोटली खोली जाती है। एक चिट्ठी मिलती है। चौवन साल बाद रिहा किया गया मचांग। चौवन सालों में उसकी ज़िंदगी का हर लम्हा जेल की चारदीवारी के भीतर मिट गया। लेकिन एक चीज नहीं बदली थी, उसका नाम मचांग। गांव का एक बुजुर्ग पहचानता है उस नाम को। लेकिन अब अंत हो चुका है। वो व्यक्ति रोता है, अपने बड़े भाई की मृत्यु पर। याद करता है, कभी इस नाम का उसका भाई हुआ करता था। उसकी मां ने बताया था। जिसकी याद में वो खाने के वक्त एक कौर पक्षियों को डालती थी।

18 July 2008

लो अब ज़िद्द बांधकर बैठ गया मन
कहता है सारंगी दे दो
मुझको मीरा बन जाने दो
या पर्वत पर चढ़ जाने दो
सागर को मथ लेने दो
और अचानक रूठ गया मन
नहीं मुझे उड़ जाने दो
अंबर में बस जाने दो
या ख़ुश्बू बन छा जाने दो
जाने कहां दुबक गया मन
अंधेरे में डूब गया मन
डरते-डरते टूट गया मन
धीरे-धीरे पंख पसारे
आसमां में उड़ चला मन

17 July 2008

प्रजातंत्र

प्रजातंत्र से हमारा अभिप्राय उस सरकार से है जो गधों की होती है और गधों के भले के लिए गधों के द्वारा ही चलाई जाती है। जनता की सेवा करने के इच्छुक गधों की तादाद इतनी ज्यादा होती है कि सरकार बनाने के लिए चुनाव कराया जाता है। इन चुनावों में लाखों रुपयों का खर्च आता है। खर्च के अतिरिक्त शराब, गुंडागर्दी और काले धन का प्रयोग भी बदस्तूर किया जाता है। चुनाव आमतौर पर हर पांच वर्ष बाद होते हैं। चुनाव जीतने के बाद गधा लोग नेता कहलाते हैं। वे टोपी पहनते हैं, सरकारी मोटरों पर चलते हैं, शानदार कोठियों में रहते हैं, भ्रष्ट अधिकारियों की मदद से आए चुनाव के लिए पैसा इकट्ठा करते हैं और बाकी वक़्त में देश के लिए कानून बनाते हैं, सरकार चलाते हैं। जिस दल में ज्यादा गधे होते हैं वही दल सरकार बनाती है और इसी कारण कभी-कभी ऐसी नाज़ुक स्थिति आ जाती है कि दलबदल करने के संदर्भ में एक-एक गधे की कीमत पंद्रह लाख रुपये तक (अब इसे करोड़ में भी गिना जा सकता है)पहुंच जाती है। इतनी भारी रकम के सामने गधा दलबदल न करे तो और क्या करे?
(रवींद्रनाथ त्यागी की रचना)

14 July 2008

किसी भी बात पर अपना निजी अंतिम फैसला सुनाने से पहले एक फिर सोच जरूर लेना चाहिए। जल्दबाज़ी कई बार आत्मघात सरीखी हो जाती है। मैंने भी कुछ ऐसा ही किया। मोहल्ले पर असद जी की कविताओं पर की गई अपनी टिप्पणी पर बहुत शर्मिंदा हुई। अगर मेरे पास अधिकार होता तो मैं अपनी बकवास टिप्पणी को वापस ले लेती। उस टिप्पणी के बाद साहित्य में रुचि रखनेवाले अपने कुछ साथियों से भी बात की। शर्मींदगी और बढ़ गई। असद ज़ैदी जी से बात करने के बाद कुछ राहत जरूर महसूस हुई। और फिर कविताएं तो सांप्रदायिक नहीं हो सकती। अच्छा तो यही है कि हम सांप्रदायिकता के ताने बाने से निकलकर भविष्य के लिए कुछ बेहतर सोचे। हिंदू-मुस्लिम-सिख-इसाई के फसाद में कभी किसी का भला हुआ क्या। कश्मीर हमारे सामने है।

13 July 2008

हमारी आज़ादी, तुम्हारी ज़ंजीरें

हमारी आज़ादी की सभी उड़ानें रद्द हो जाती हैं, जब तय सीमा से ऊंचा उड़ने पर पता चलता है कि एक न दिखाई देनेवाली ज़ंजीर हमारे पैरों में पड़ी हुई है। भरपूर नीला आसमान जहां से दिखाई पड़ने लगता है, दूरियां जहां किसी स्केल पर नहीं नापी जा सकतीं, उस उड़ान का एहसास होने से पहले ही हमारे पंख फड़फड़ाने लग जाते हैं और अचानक पता चलता है कि एक बहुत मोटी ज़ंजीर में पैर जकड़े हुए हैं। इस जंज़ीर का पता उस बंधन के बाद सबसे ज्यादा शिद्दत से महसूस होता है जिसे हम शादी कहते हैं। अचानक पता चलता है अरे मैं तो बंध गई हूं, बंधन में नहीं, ज़ंजीर में। इस ज़ंजीर की ख़ास बात भी होती है। लड़की खुद को इससे छुड़ाने की कोशिश भी नहीं करती। ये ज़ंजीर आदत-मोहब्बत-मुसीबत सब बन जाती है। फिर ज़ंजीर तोड़कर खुला आसमान डराने लगता है, उड़ने की चाह भी दम तोड़ देती है।
हां शुरु-शुरू में वो फड़फड़ाती जरूर है। मदद के लिए कोई नहीं आता। जो आता है वो दुनियारी का रट्टू पाठ पढ़ाता है। ऐसा ही होता है, वैसा ही होता है, फिर फड़फड़ाहट भी कम होने लगती है। ज़िंदगी मशीन सरीखी होने लगती है। हर सुबह एक जैसी, हर दोपहर उनींदी, हर शाम उम्मीदें जगाती, हर रात उन उम्मीदों को दफ्न करती, वो मर चुकी होती है, ज़िंदा होने की सोई तमन्ना के साथ। हां वक़्त के साथ ये स्थिति बदली है। ज़ंजीर कुछ बड़ी हुई है, लेकिन टूटी नहीं। लड़की की ज़िंदगी एक जुआ होती है, दांव लग गया तो लग गया, नहीं तो गए काम से।

05 July 2008


रात में ख़ामोशी, बहार में ख़ुश्बू

चमन में फूल, ज़िंदगी में धूल

आम बात है...

चलती-फिरती सड़क, किनारे ठहरे हुए

भागता वक़्त, ज़िंदगी रूकी हुई

आम बात है...

भूखा पेट, उभरी हड्डियां

सोई हुई आत्मा, जागा हुआ इंसान

दबी हुई चीख, ख़ामोश ज़ुबान

ये भी तो

पर क्यों

आम बात है...

03 July 2008

दो कविताएं, डायरी से

लग जाने दो मुझे ठोकर
वो चोट मेरी अपनी होगी
उंगलियां पकड़-पकड़ चलने से
मेरा वज़ूद टूटता है
कदम गिर-गिरकर
फिर उठेंगे, फिर चलेंगे
और
मेरी वो राह अपनी होगी
मुझे ले लेने दो
मेरे हिस्से का दर्द
साथ निभाओ तो
साथी बनकर
जीवन मेरा
मैं जियूं जी भरकर
वो ज़िंदगी
मेरी अपनी होगी
--------

बहेलिया

रात की कराह पर बांवरा बहेलिया
ले चला सूर्य को हांकता बहेलिया

सरिता की धार पर प्यासा बहेलिया
ग़ुम गए किनारों को ढूंढ़ता बहेलिया

मंदिरों की बाड़ी पर घूमता बहेलिया
देख रहा भूख को नाचता बहेलिया

बंगलों की दहलीज़ पर फिरकता बहेलिया
रोटियों के दर्द को पुचकारता बहेलिया

धुंध के छलावों पर लौटता बहेलिया
ले चला नींद को दुलारता बहेलिया

26 June 2008

एक बिहारी, एक राजस्थानी में कुछ और...

(मूल लेख ब्लॉग में दिख जाएगा)
कुछ और... इसलिए क्योंकि कुछ टिप्पणियों में बिहारवाद पर नाराजगी ज़ाहिर की गई थी। इसे मेरी सफाई और क़िस्सागोई की क्षमता की कमी भी मान सकते हैं। वो लेख मेरे एक राजस्थानी मित्र का अनुभव था। जिसे ब्लॉग में बताने का मक़सद बिहार और बिहारियों के साथ भेदभाव को बताना था। यूपी का होते हुए बिहार मेरे ज्यादा नज़दीक है। राजस्थानी से ज्यादा बिहारी मित्र हैं मेरे। जब किसी को बिहारी कहकर संबोधित किया जाता है तो वो मुझे ज्यादा अप्रिय लगता है। बिहार के आईएएस को दिल्ली का एक बस कंडक्टर भी बिहारी बोलकर ख़ारिज कर देता है। ऐसे मुद्दों पर कई बार मेरी बहस हो जाती है। पर मेरे लेखन से किसी को ठेस पहुंची हो तो सॉरी है भाई।

आपके घर में कोई जेंट्स है?

सुबह क़रीब 9 बजे डोर बेल बजी। नींद में लड़खड़ाती हुई वो दरवाजे तक पहुंची। आंख मलते हुए दरवाजा खोला। बाहर 16-17 साल का सेल्समैन खड़ा था। टाई-शाई लगाए हुए। वो वाटर प्यूरीफायर बेच रहा था। दरवाजा खुलते ही उसने अपना परिचय देना शुरू किया। फलां-फलां कंपनी से आया हूं, फलां-फलां वाटर प्यूरीफायर लाया हूं। फिर उसने लड़की से बड़े सहजभाव से पूछा आपके घर में कोई जेंट्स है। उसके इस सवाल पर पहला खयाल तो आया कि इस नौजवान को किसी ने बुलाया होगा, वक़्त दिया होगा और उसने गलती से गलत दरवाजे पर दस्तक दे दी है। लड़की बोली - यहां कोई जेंट्स नहीं रहता। लड़की नौकरीपेशा थी, पहले अकेले फिर अपनी कुछ सहेलियों के साथ रहती थी। लड़के को बात हजम नहीं हुई। वो हंसकर बोला -ऐसा कोई घर नहीं हो सकता, जहां कोई जेंट्स न रहता हो। लड़की ने झल्लाकर पूछा तुम जेंट्स को ही क्यों पूछ रहे हो? इस सवाल के बाद उसकी झल्लाहट खत्म हो गई थी। सेल्समैन ने जवाब दिया- घर के फैसले तो जेंट्स ही लेते हैं न। वो वॉटर प्यूरीफायर बेचने आया था और उसके मुताबिक घर के अंदर-बाहर खरीदने की क्षमता-फैसला लेना तो जेंट्स का ही काम है।
उसने सेल्समैन से पूछा तुम्हारे घर में फैसले कौन लेता है- पापा या मम्मी। वो थोड़ा शरमा गया। बोला- वैसे तो घर में चलती मम्मी की ही है लेकिन आखिर में तो पापा ही फैसला करते हैं। फिर उसने इस छोटी-गंभीर-मजेदार वार्ता को खत्म कर दिया और मशीन के डेमो के लिए वक़्त मांगने लगा। लड़की ने भी उसे अपने ज़रा से खाली समय में से सबसे ज्यादा खाली रहनेवाला समय दे दिया और पूछा- इस वाटरप्यूरी फायर की कीमत कितनी है। वो बोला छत्तीस सौ रुपये। लड़की बोली- वैसे मैं ये खरीदूंगी नहीं। वो हंसा और बोला-आप कुछ अजीब हैं।

25 June 2008

एक राजस्थानी, एक बिहारी

बंदा एक ही है। राजस्थानी है। लोग न जानें क्यों उसे बिहारी समझते हैं। शक्ल से क्योंकि रईसी नहीं झलकती। नाम भी ऐसा है कि कमेडियान भइया राजू श्रीवास्तव उसके नाम के सत्तू का प्रचार करते हैं और कई रिक्शों के पीछे उसके नाम के ब्रांड के सत्तू का एड चिपका मिल जाएगा। फिर भी मैं उसके नाम का ज़िक्र नहीं कर रही लेकिन उससे पूछे बिना उसके बारे में ज़िक्र के लिए, और उसके तल्ख-मजेदार किस्से के लिए क्षमाप्रार्थी हूं। किस्सा कुछ यूं है कि इस राजस्थानी ने किराए का कमरा तलाशते-तलाशते एक मकान का दरवाजा खटखटाया। मुंह में पान ठूंसा हुआ था। मकानमालिक ने दरवाजे से सर बाहर निकाला, शक्ल देख छूटते ही बोला -क्या बिहारी हो? मकान का किराया था 4000 रूपये। राजस्थानी ने फटाक जेब से राजस्थान से जुड़ा एक आई कार्ड निकाला। देखिए, बिहारी नहीं, राजस्थानी हूं। किराया 500 रूपया कम हो गया। किस्से के मायने आप अपने हिसाब से खुद निकाल लीजिए।

24 June 2008

महात्मा गांधी हाज़िर हों

गांधी जी यूं तो कभी भूले नहीं, न जाएंगे। मुन्नाभाई की गांधीगीरी ने उनके भुलाए जा चुके रास्ते की याद दिला दी। उस फिल्म के बाद गांधी जी एक नए स्टाइल में सामने आ गए, जिससे नई पीढ़ी भी खुद को जोड़ पाई। सुना है कि आइन्स्टाइन ने कहा था कि - हज़ारों साल बाद भी लोग गांधी जी को याद करेंगे कि इस हाड़-मांस के आदमी ने भारत को आज़ादी दिलाई थी। हाल ही में टॉम हैंक्स की एक फिल्म में एक सीन में एक भारतीय को गांधी कहकर संबोधित किया गया। उस सीन में जिसका मतलब भारतीय होना यानी गांधी होना था। गांधी जी भारतीयता की पहचान हैं। झारखंड के एक नक्सलवादी इलाके पर एक ख़बरिया चैनल की रिपोर्ट में बहुत सारे नक्सलवादियों और नक्सलवादी नेताओं से गांधी के बारे में पूछा गया, वो बापू को नहीं जानते थे हां गांधी के नाम पर इंदिरा गांधी को उन्होंने जरूर सुन रखा था। गांधी जी आज फिर इसलिए याद आए क्योंकि उन्हें अहमदाबाद में एसबीआई के प्री-इग्जामिनेशन ट्रेनिंग प्रोग्राम के लिए बुलाया गया है। उन्हें ट्रेनिंग कैंप में उपस्थित रहने को कहा गया है। ये ट्रेनिंग कैंप बैंक के क्लर्क्स के लिए आयोजित किया गया है। पता नहीं बापू इस परीक्षा में पास हो पाएंगे या नहीं।

23 June 2008

कितना पानी- इतना पानी

बोल मेरी मछली कितना पानी-इतना पानी-इतना पानी। बचपन का ये खेल इस वक़्त खेला जा सकता है। बारिश हो न हो, बारिश की फुहारों की धुन आप महसूस कर सकते हैं। अब के बादल इतने जमकर बरस रहे हैं कि तन भी भीगे, मन भी भीगे, सड़कें जून में तालाब बनीं और ज़ोर-जोर से हुंकार मारकर, गुनगुना-झूम-गाकर मॉनसून जुलाई की जगह जून में आ टपका। सावन के गीत जेठ में गाए जाने लगे। सूखे बुंदेलखंड में बाढ़ की स्थिति बन रही है। बनारस के घाट पानी में डूब गए हैं। हरिद्वार में संतगण गंगा को बचाने के लिए अनशन कर रहे हैं। पर इससे क्या होता है। बुंदेलखंड में जहां ये पानी ख़ून से ज्यादा महंगा है, वर्षा के जल को बचाने के लिए क्या किया जा रहा है। दम तोड़ते ऐतिहासिक तालाबों तक ये जीवनधारा पहुंचाने के लिए क्या कर रहे हैं हम। यूपी के कई ज़िलों में ज़मीन में दरार पड़ गई क्योंकि भूजल स्तर गिरने से दुबली हुई ज़मीन बारिश की धार सह नहीं पाई, तो अब वर्षा का जल नालों में न बहे, ये सुनिश्चित करने के लिए, अफसोस कहीं कुछ नहीं किया जा रहा। रेन वाटर हार्वेस्टिंग यानी वर्षा जल संचयन पर बात करने के ये सही समय है। शब्दों-सवालों-ख़बर हर तरह से हम इस मुद्दे पर अपनी आवाज़ बुलंद कर सकते हैं। कम से कम बुंदेलखंड के लिए तो ये बहुत जरूरी है। कहां बुंदेलखंड में कृत्रिम बारिश की बात कही जा रही थी, अब जब बादलों ने
डेरा जमा लिया है तो उन्हें रूठने न दें। कई बार लगता है कि ऐसी बातों को लिखने से क्या फर्क़ पड़ता है। पर क्या पता कहीं कुछ फर्क़ पड़ता हो।

22 June 2008

...और फिर, फिर, एक बार फिर, बार-बार, और फिर, और फिर....ये फिर नहीं हटता। आज एक ख़बर लिख रही थी लखनऊ में दो बच्चियां चाइल्ड लाइन संस्था में लाई गई हैं। इनमें से एक 11 साल की है काजल और दूसरी डेढ़ साल की है तारा। दोनों बच्चियों को उसके पिता ने मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर छोड़ दिया था। ये ख़बर, ये कहानी कितली बार लिख चुकी हूं, बस नाम बदल जाते हैं, ख़बर वही रहती है। चार बेटियों का पिता बेटा चाहता था, बेटियां उसके लिए बोझ थी। दो बहनों को उसने उनके मामा के पास छोड़ा और दो को मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर छोड़कर भाग गया। वो गुवाहाटी का रहनेवाला था। मुगलसराय में कुछ दिन तक काजल भीख मांगकर अपना और अपनी बहन का पेट भरती रही। नवादा अपने मामा के पास गई, उसने भी भगा दिया, फिर ये ट्रेन में बैठकर दिल्ली के लिए निकली, किसी ने बताया था कि वहां भीख अच्छी मिलती है, लेकिन ट्रेन लखनऊ की थी। काजल को अपने पिता से छूटने का कोई अफसोस नहीं। वो बिल्कुल नहीं रोती। वो अपनी बहन की मां बन गई है। घर किसी सूरत में वापस नहीं जाना चाहती। ऐसी कितनी काजल हैं। जो जन्म के बाद कभी कूड़े के ढेर पर, कभी मंदिर के सामने तो कभी ट्रेन की पटरी पर पड़ी मिलती हैं। कितनी जन्म से पहले मार दी जाती हैं। सालों से हम ये खबरें देखते-सुनते आ रहे हैं। क्या ये हालात कभी बदलेंगे। शायद ये ब्रेष्ट की ही कविता है- हर चीज बदलती है, अपनी हर आखिरी सांस के साथ, तुम एक ताज़ा शुरुआत कर सकते हो।

01 June 2008

बचाओ-'सारस'


सारस के बारे में कुछ मोटी-मोटी जानकारी। पूरी दुनिया में क़रीब 8500 सारस हैं, इनमें से 90फीसदी भारत में हैं और भारत में सारस का सबसे बड़ा बसेरा उत्तर प्रदेश में है। यूपी में इटावा-मैनपुरी बेल्ट में सबसे ज्यादा क़रीब 2500 सारस हैं। पक्षियों में सबसे बड़े आकार वाला सारस भी इनडेन्जर्ड स्पिशीज़ में शामिल है। बुंदेलखंड में आनेवाले इटावा-मैनपुरी बेल्ट में सूखे का संकट सारस पर भी पड़ा है। सारस पानी के ईर्द-गिर्द रहते हैं, झील-तालाब के पास ये अपना बसेरा बनाते हैं। अब झील-तालाब सूख रहे हैं और इसका असर सारस पर भी पड़ रहा है, प्यास से सारस की मौत की ख़बरें भी सुनने को मिली हैं। अंडे देने के लिए धान के खेत में अपना घोसला बनानेवाले इस पक्षी को अब किसान अपना शत्रु मानने लगे हैं, जो पहले किसानों का मित्र हुआ करता था, क्योंकि फसल में लगनेवाले कींड़ों को ये अपना भोजन बना लेता था। लेकिन सारस जहां रहता है उसके 4 से 5 मीटर के दायरे में फसल बर्बाद कर देता है, इसलिए किसान अपने खेतों में सारस को घोसला बनाने से रोकत हैं। वैसे झील-तालाब समेत जहां सारस रहते हैं वो ज़मीन भी इनके नाम है लेकिन गर्मी के दिनों में जब पानी सूख जाता है तो किसान उस ज़मीन पर पट्टे पर खेती शुरू कर देते हैं जो कि अवैध है। सारस को बचाने के लिए झील-तालाबों को जिंदा रखना होगा। नहीं तो धरती का ये सबसे बड़ा पक्षी अलविदा कह देगा।

29 May 2008

सबसे बड़ा बोर्ड,पिछड़ा बोर्ड, यूपी बोर्ड

सीबीएसई बोर्ड के दसवीं के नतीजे आए, 88 फीसदी छात्र पास हुए। आईसीएसई बोर्ड में दसवीं का रिजल्ट 98.6 फीसदी रहा जबकि 12वीं का रिजल्ट 97.5 फीसदी रहा। यूपी बोर्ड का हाल देखिए एक तिहाई बच्चे फेल हो गए। सिर्फ 65 फीसदी बच्चे पास हए। इनमें लड़के तो क़रीब-क़रीब आधे फेल हो गए। छात्रों की सफलता का आंकड़ा मात्र 54 फीसदी रहा। बोर्ड की सचिव ने कहा नकल पर अंकुश लगाया इसलिए मात्र 65फीसदी बच्चे पास हुए। लेकिन दूसरे बोर्ड की तुलना में यूपी बोर्ड पिछड़ा हुआ है इसमें किसी को कोई शक़ नहीं हो सकता। पाठ्यक्रम के मामले में भी, पढ़ने-पढ़ाने के तरीके के मामले में भी, सुविधाओं के मामले में भी। यूपी बोर्ड से सबसे यादा विद्यार्थी निकलते हैं, सबसे बड़ा बोर्ड है यूपी बोर्ड, नकल के मामले में भी सबसे अव्वल। नकल के लिए परीक्षा केंद्र बदले जाते हैं, पूरा-पूरा परीक्षा केंद्र नकल करते हुए पकड़ा जाता है, नकल माफिया यहां परीक्षा कराने के लिए लाखों का खेल करते हैं, शिक्षक-प्रधानाचार्य तक नकल कराने के लिए पकड़े जाते हैं। नकल रोकनेवालों की जान पर आ बनती है। ये ख़बरें अनसुनी नहीं। तो फिर इस बोर्ड से पास होकर निकलनेवाले विद्यार्थियों की शिक्षा का स्तर क्या-कैसा होगा? इसमें विद्यार्थियों को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। मां-बाप अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूलों में दाखिला भी इसीलिए दिलाना चाहते हैं , क्योंकि वहां से निकलनेवाले बच्चों का भविष्य ज्यादा बेहतर नज़र आता है। यूपी बोर्ड की दिक्कत भी ठीक वही है जो आकार और आबादी में बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की है। विकास के नक्शे में उत्तर प्रदेश सबसे पिछड़ने राज्यों में से एक है और यूपी बोर्ड के बच्चे घटिया शैक्षिक स्तर की वजह से मात खाते हैं और दूसरे माध्यम से पढ़े बच्चों की तुलना में उन्हें ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है, हर क्षेत्र में। आत्मविश्वास के मामले में भी वो पीछे ही रह जाते हैं।

12 May 2008

बातें

बातें कितनी अच्छी होती हैं। समंदर की बातें करिये और आप समंदर किनारे पहुंच जाते हैं। बर्फ़ की बातें करिये और दिमाग़ पैरों तले बर्फ़ की सफ़ेद चादर बिछा देता है। रेत की बात छिड़े तो रेगिस्तान के थपेड़े महसूस होने लगते हैं। बातें, दिमाग़ और शब्द मिलकर सेकेंट के सौवें हिस्से से भी कम समय में आपको भारत से अमेरिका पहुंचा सकते हैं। बातों के ज़रिये उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव जाने में सेकेंड का कौन सा हिस्सा लगेगा, ये मापा भी नहीं जा सकता। हैरी पॉटर भी अपनी जादुई छड़ी हिलाकर इतनी जल्दी हमें यहां से वहां नहीं भेज सकता। बातों-बातों में हम जाने क्या-क्या बातें कर जाते हैं। बहुत ऊंची-ऊंची बातें करनेवालों को बुद्धिजीवी फ़र्ज़ी ठहराते हैं। निंदा रस की बातों का मज़ा ही दूसरा होता है। बातें नहीं करते तो घुन्ने कहलाते हैं, बातें बहुत करते हैं तो कहते हैं कि बात बनाते हैं। कुछ लोग बहुत अच्छा बोलते हैं लेकिन दिल के बहुत कड़वे होते हैं। कुछ बहुत कड़वी बातें बोलते हैं मगर दिल के बहुत अच्छे होते हैं। बातों से हम कितना बंधे हैं। अगर कोई अपना साथ छोड़ चला जाता है तो सबसे ज्यादा बातों की ही तो कमी खलती है, न मुलाक़ात होगी, न बात होगी। बातें ही तो हैं जिस पर ज़िंदगी चलती है।

19 April 2008

डायरी की धूल झाड़कर बीते दिनों की एक और कविता.....
हर रोज शाम ढलती
दिन से पूछती
तू कल आएगा न
हर रोज दिन ढलता
शाम से कहता
मैं कल आऊंगा फिर
हर रोज गगन देख
मन कहता
चल उड़ चलें कहीं
और दिमाग़ बोलता
थोड़ी देर ठहर
ये अंजानी डगर
जी ले
और मन घुमड़ता
ये दिमाग़ क्यों है?

बचाओ-"तितली"


धरती की कल्पना कीजिए जब तितलियां नहीं रहेंगी। शायद ये अकल्पनीय हैं। क्योंकि कल्पना करना तो हम तितलियों से ही सीखते हैं। हम धरती से रंग भी चुरा रहे हैं। जो तितलियों के रूप में हमारे सामने हैं। अपने ख़ूबसूरत चटकीले पंखों के साथ फूलों के ईर्द-गिर्द मंडराती तितली कभी-कभार दिखती है तो उस क्षण में हमारा मन भी ख़ूबसूरत हो जाता है। मैंने ऐसा महसूस किया है। लेकिन अब तितली इतनी कम दिखती है कि इसे तितली का न दिखना ही कहेंगे। शहरों में तितलियों के लिए कोई जगह नहीं बची। धरती से अपने पंखों को, रंगों को, सुंदर कल्पनाओं को, समेट कर तितलियां चुपचाप विदाई ले रही हैं। तितलियां भी लुप्त हो रही हैं। केरल के अंदरूनी, दूरदराज इलाकों और पूर्वोत्तर राज्यों के कई क्षेत्रों में एक समय तितलियों की करीब 2,000 प्रजातियां थी और आज इनमें लगभग 400 प्रजातियां साज-सज्जा के अंतर्राष्ट्रीय कारोबार में खत्म हो चुकी हैं। कीटनाशकों का बढ़ता इस्तेमाल भी तितलियों के लुप्त होने की एक वजह है। साज-सज्जा के लिए तितलियों का शिकार किया जाता है। इन्हें मार कर सुखा दिया जाता है। जबकि हमारे देश में इस पर प्रतिबंध भी है। थाईलैंड इस कारोबार का केंद्र है। एक तितली के लिए पांच-पांच सौ रूपये तक में बिक जाती है। तितलियों के शिकार पर एक फिल्म भी बनी है, ‘वन्स देअर वाज़ अ पर्पल बटरफ्लाई’ । धरती के जंगल-बुक से तितलियों का पन्ना भी खाली हो जाए। इससे पहले इन्हें 'बचाओ'।









10 April 2008

एक मौत


एक मौत
क्या-क्या बदल सकती है
कुछ भी नहीं, सिवाय
उस ज़िंदगी के जो खत्म हो गई
---
एक मौत
क्या-क्या बदल देती है
कुछ भी नहीं, सिवाय
उस परिवार के जो अधूरा हो गया
----
एक मौत
क्या-क्या बदल गई
कुछ भी नहीं, सिवाय
उस दोस्तीचक्र के जो अब पूरा न हो पाएगा
----
एक मौत
जो कुछ भी नहीं
जिसका होना ही उसके न होने में हो
वो आज बता गई मुझे
कि जो चला गया वो मेरा ही एक अंश था
आज बता गई मुझे कि
हम बातों के सिवाय कुछ नहीं कर सकते
यानि 'मैं', 'तुम' और 'हम'
कुछ नहीं, कुछ है तो बस
उस मोड़ पर खड़ी,
किसी का इंतज़ार करती हुई
एक मौत
(मौत पर लिखी गई ये कविता मेरे पति के छोटे भाई धर्मवीर डोबरियाल की है, जिसकी आज से ठीक एक महीना पहले गाड़ी खाई में गिरने से मौत हो गई, उसकी एक प्रिय किताब चंद्रकांता संतति के पन्ने पलटते वक़्त ये कविता मिली, ये कविता 10 अगस्त 2004 को देर रात 12.35 पर लिखी गई थी, तब वो 27 साल का था)

25 March 2008

बचाओ...बाघ...

बचाओ...बाघ...
क्या आपको अपने बचपन में सुनी कहानियां याद हैं, जिसमें एक जंगल होता था, एक बाघ होता था जो जंगल का राजा माना जाता था। कहानी में जिसका ज़िक्र आते ही बच्चों के रोंगटे खड़े हो जाते थे, बाघ क्या करने वाला है। जंगल का शहंशाह, सबसे खतरनाक शिकारी जिसकी कल्पना भी डराती है, जिसके आने की आहट से दूसरे जानवर कांप जाते थे, जंगल भी शायद सहम जाता हो। बाघ की कुछ ऐसी ही तस्वीर हमारे दिलो-दिमाग में गढ़ी गई है। बाघ की कहानियां बचपन में बहुत लुभाती थीं और अब डर है कि बाघ कहीं कहानी बनकर ही न रह जाए। जंगल से बाघों की घटती संख्या तो यही संकेत दे रही है।

टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी की रिपोर्ट कहती है अब हमारे देश के जंगल में महज 1411 बाघ रह गए हैं(इस गणना में उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के कुछ नक्सल प्रभावित इलाके शामिल नहीं थे)। पिछली गणना(2001) की तुलना में लगभग आधे। जिम कार्बेट को छोड़ दें तो सरिस्का और दूसरे टाइगर रिजर्व में बाघों की संख्या में गिरावट ही आयी है। प्रोजेक्ट टाइगर हर जगह नाकाम रहा है। बाघ के खात्मे की जो वजहे हैं, उनमें शिकार-क्योंकि बाघ बहुत कीमती होता है, घटते जंगल, आपसी द्वंद-क्योंकि घटते जंगल की वजह से बाघ का साम्राज्य भी घटता जा रहा है और बाघ के ईर्द-गिर्द रहनेवाले लोग-जिन्हें बाघ से खतरा होता है। एक विशेषज्ञ की राय थी कि बाघ को बचाने के लिए बाघ के ईर्द-गिर्द बसी बस्तियों के लोगों को उसका दोस्त बनाना होगा। धरती पर हर प्राणि की अपनी जगह है, तभी प्रकृति में संतुलन कायम है, प्रकृति को चींटी की भी जरूरत है, बाघ की भी, इनमें से एक भी नहीं रहा तो संतुलन बिगड़ जाएगा और क्या हम अपने जंगल बुक से बाघ का पन्ना खाली करने के लिए तैयार हैं?

24 March 2008

'बचाओ-घड़ियाल'


हम हरी वादियों से कंक्रीट के जंगल में समाते जा रहे हैं। तरक्की की ये मांग हमारी भी जरूरत बन गई है। हमारी इस रफ़्तार से धरती के कितने ही प्राणियों के आगे अस्तित्व का संकट आ गया है। बाघ- हाथी से लेकर घड़ियाल-मछली तक दुनिया से विदाई की कगार पर हैं। ये नहीं बोल सकते 'बचाओ', हम बोल सकते हैं।
घड़ियाल
धरती पर बचे-खुचे घड़ियालों का सबसे बड़ा बसेरा है चंबल नदी। नवंबर 2007 के आखिरी हफ़्ते में घड़ियालों के शव मिलने शुरू हुए, जिन्हें पहले वन विभाग ने चोरी-छिपे दफ़्न कर दिया था, यानी इनकी मौत का सिलसिला कुछ महीने पहले ही शुरू हो चुका था। हम कारणों की पड़ताल करते रहे, घड़ियाल एक-एक कर मरते रहे। धरती पर इस दुर्लभ प्राणी की संख्या इतनी कम है कि एक-एक घड़ियाल कीमती है। घड़ियाल का होना साफ पानी का सूचक है, घड़ियाल साफ पानी में ही पाया जाता है। लेकिन चंबल का पानी यमुना से मिलकर घड़ियालों के लिए ज़हर बन रहा है, अब तक का निष्कर्ष यही है। रिपोर्ट्स कहती हैं कि पिछले दस साल में 58 फीसदी घड़ियाल घट गए हैं। ये बड़ी चिंता का विषय है। घड़ियाल को उस रेड लिस्ट में शुमार किया गया है जो खतरे में आ चुकी स्पीशीज़ की जानकारी देता है। अब तक सौ से ज्यादा घड़ियालों की मौत की पुष्टि हो चुकी है और प्रजनन योग्य घड़ियालों की संख्या (भारत, नेपाल में मिलाकर) महज 182 आंकी गई है। तो क्या हम धरती से स्वच्छ पानी में विचरण करने वाले इस दुर्लभ जीव की विदाई के लिए तैयार हैं।

10 March 2008

मेरे कुछ पसंदीदा वाक्य, जो कविता का आकार न ले सके
...............
और फिर गिर पड़ा
घुमड़ता बादल
मेरी गोद में आकर
................
एक समंदर मेरे कमरे में था
...............
उलझी झाड़ियों में सुलझा फूल
चटक लाल
..............
तन्हा,
ज़िंदगी ख़्वाबों में
ख़्वाब रातों में...

06 March 2008

वियतनाम के क्रांतिकारी कवि तो हू की कुछ अनुवादित कविताएं
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मधुमक्खी जो बनाती है शहद
प्यार करती है फूलों को
मछली है जो तैरती है
प्यार करती है पानी को
पंछी जो गाता है
प्यार करता है आकाश को
इंसान जो जीना चाहता है
हे मेरे बच्चे
उसे जरूर करना चाहिए
अपने साथी लोगों
और अपने भाइयों से प्यार
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एक तारा आकाश को
जगमग नहीं कर सकता
एक ढेरी पके चावल
पूरी फसल नहीं बना सकते
एक आदमी हर हाल में
दुनिया नहीं है
एक बुझते अंगार से
ज्यादा नहीं है
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पहाड़ पृथ्वी पर बना है
अगर ये धरती की दीनता को ठुकरा दे
कहां बैठेगा ये
गहरा समुद्र पी जाता है
हर नदी-सोता
अगर ये ठुकरा दे
छोटे नदी-सोतों को
वहां पानी नहीं बचेगा
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बूढ़ा बांस प्यार करता है
कोपल को
कोमलता से दिनोंदिन
जब तुम सयाने हो बड़े ज्यादा पिता से
तुम लोगे गोल धरती अपनी बाहों में