26 June 2008

एक बिहारी, एक राजस्थानी में कुछ और...

(मूल लेख ब्लॉग में दिख जाएगा)
कुछ और... इसलिए क्योंकि कुछ टिप्पणियों में बिहारवाद पर नाराजगी ज़ाहिर की गई थी। इसे मेरी सफाई और क़िस्सागोई की क्षमता की कमी भी मान सकते हैं। वो लेख मेरे एक राजस्थानी मित्र का अनुभव था। जिसे ब्लॉग में बताने का मक़सद बिहार और बिहारियों के साथ भेदभाव को बताना था। यूपी का होते हुए बिहार मेरे ज्यादा नज़दीक है। राजस्थानी से ज्यादा बिहारी मित्र हैं मेरे। जब किसी को बिहारी कहकर संबोधित किया जाता है तो वो मुझे ज्यादा अप्रिय लगता है। बिहार के आईएएस को दिल्ली का एक बस कंडक्टर भी बिहारी बोलकर ख़ारिज कर देता है। ऐसे मुद्दों पर कई बार मेरी बहस हो जाती है। पर मेरे लेखन से किसी को ठेस पहुंची हो तो सॉरी है भाई।

आपके घर में कोई जेंट्स है?

सुबह क़रीब 9 बजे डोर बेल बजी। नींद में लड़खड़ाती हुई वो दरवाजे तक पहुंची। आंख मलते हुए दरवाजा खोला। बाहर 16-17 साल का सेल्समैन खड़ा था। टाई-शाई लगाए हुए। वो वाटर प्यूरीफायर बेच रहा था। दरवाजा खुलते ही उसने अपना परिचय देना शुरू किया। फलां-फलां कंपनी से आया हूं, फलां-फलां वाटर प्यूरीफायर लाया हूं। फिर उसने लड़की से बड़े सहजभाव से पूछा आपके घर में कोई जेंट्स है। उसके इस सवाल पर पहला खयाल तो आया कि इस नौजवान को किसी ने बुलाया होगा, वक़्त दिया होगा और उसने गलती से गलत दरवाजे पर दस्तक दे दी है। लड़की बोली - यहां कोई जेंट्स नहीं रहता। लड़की नौकरीपेशा थी, पहले अकेले फिर अपनी कुछ सहेलियों के साथ रहती थी। लड़के को बात हजम नहीं हुई। वो हंसकर बोला -ऐसा कोई घर नहीं हो सकता, जहां कोई जेंट्स न रहता हो। लड़की ने झल्लाकर पूछा तुम जेंट्स को ही क्यों पूछ रहे हो? इस सवाल के बाद उसकी झल्लाहट खत्म हो गई थी। सेल्समैन ने जवाब दिया- घर के फैसले तो जेंट्स ही लेते हैं न। वो वॉटर प्यूरीफायर बेचने आया था और उसके मुताबिक घर के अंदर-बाहर खरीदने की क्षमता-फैसला लेना तो जेंट्स का ही काम है।
उसने सेल्समैन से पूछा तुम्हारे घर में फैसले कौन लेता है- पापा या मम्मी। वो थोड़ा शरमा गया। बोला- वैसे तो घर में चलती मम्मी की ही है लेकिन आखिर में तो पापा ही फैसला करते हैं। फिर उसने इस छोटी-गंभीर-मजेदार वार्ता को खत्म कर दिया और मशीन के डेमो के लिए वक़्त मांगने लगा। लड़की ने भी उसे अपने ज़रा से खाली समय में से सबसे ज्यादा खाली रहनेवाला समय दे दिया और पूछा- इस वाटरप्यूरी फायर की कीमत कितनी है। वो बोला छत्तीस सौ रुपये। लड़की बोली- वैसे मैं ये खरीदूंगी नहीं। वो हंसा और बोला-आप कुछ अजीब हैं।

25 June 2008

एक राजस्थानी, एक बिहारी

बंदा एक ही है। राजस्थानी है। लोग न जानें क्यों उसे बिहारी समझते हैं। शक्ल से क्योंकि रईसी नहीं झलकती। नाम भी ऐसा है कि कमेडियान भइया राजू श्रीवास्तव उसके नाम के सत्तू का प्रचार करते हैं और कई रिक्शों के पीछे उसके नाम के ब्रांड के सत्तू का एड चिपका मिल जाएगा। फिर भी मैं उसके नाम का ज़िक्र नहीं कर रही लेकिन उससे पूछे बिना उसके बारे में ज़िक्र के लिए, और उसके तल्ख-मजेदार किस्से के लिए क्षमाप्रार्थी हूं। किस्सा कुछ यूं है कि इस राजस्थानी ने किराए का कमरा तलाशते-तलाशते एक मकान का दरवाजा खटखटाया। मुंह में पान ठूंसा हुआ था। मकानमालिक ने दरवाजे से सर बाहर निकाला, शक्ल देख छूटते ही बोला -क्या बिहारी हो? मकान का किराया था 4000 रूपये। राजस्थानी ने फटाक जेब से राजस्थान से जुड़ा एक आई कार्ड निकाला। देखिए, बिहारी नहीं, राजस्थानी हूं। किराया 500 रूपया कम हो गया। किस्से के मायने आप अपने हिसाब से खुद निकाल लीजिए।

24 June 2008

महात्मा गांधी हाज़िर हों

गांधी जी यूं तो कभी भूले नहीं, न जाएंगे। मुन्नाभाई की गांधीगीरी ने उनके भुलाए जा चुके रास्ते की याद दिला दी। उस फिल्म के बाद गांधी जी एक नए स्टाइल में सामने आ गए, जिससे नई पीढ़ी भी खुद को जोड़ पाई। सुना है कि आइन्स्टाइन ने कहा था कि - हज़ारों साल बाद भी लोग गांधी जी को याद करेंगे कि इस हाड़-मांस के आदमी ने भारत को आज़ादी दिलाई थी। हाल ही में टॉम हैंक्स की एक फिल्म में एक सीन में एक भारतीय को गांधी कहकर संबोधित किया गया। उस सीन में जिसका मतलब भारतीय होना यानी गांधी होना था। गांधी जी भारतीयता की पहचान हैं। झारखंड के एक नक्सलवादी इलाके पर एक ख़बरिया चैनल की रिपोर्ट में बहुत सारे नक्सलवादियों और नक्सलवादी नेताओं से गांधी के बारे में पूछा गया, वो बापू को नहीं जानते थे हां गांधी के नाम पर इंदिरा गांधी को उन्होंने जरूर सुन रखा था। गांधी जी आज फिर इसलिए याद आए क्योंकि उन्हें अहमदाबाद में एसबीआई के प्री-इग्जामिनेशन ट्रेनिंग प्रोग्राम के लिए बुलाया गया है। उन्हें ट्रेनिंग कैंप में उपस्थित रहने को कहा गया है। ये ट्रेनिंग कैंप बैंक के क्लर्क्स के लिए आयोजित किया गया है। पता नहीं बापू इस परीक्षा में पास हो पाएंगे या नहीं।

23 June 2008

कितना पानी- इतना पानी

बोल मेरी मछली कितना पानी-इतना पानी-इतना पानी। बचपन का ये खेल इस वक़्त खेला जा सकता है। बारिश हो न हो, बारिश की फुहारों की धुन आप महसूस कर सकते हैं। अब के बादल इतने जमकर बरस रहे हैं कि तन भी भीगे, मन भी भीगे, सड़कें जून में तालाब बनीं और ज़ोर-जोर से हुंकार मारकर, गुनगुना-झूम-गाकर मॉनसून जुलाई की जगह जून में आ टपका। सावन के गीत जेठ में गाए जाने लगे। सूखे बुंदेलखंड में बाढ़ की स्थिति बन रही है। बनारस के घाट पानी में डूब गए हैं। हरिद्वार में संतगण गंगा को बचाने के लिए अनशन कर रहे हैं। पर इससे क्या होता है। बुंदेलखंड में जहां ये पानी ख़ून से ज्यादा महंगा है, वर्षा के जल को बचाने के लिए क्या किया जा रहा है। दम तोड़ते ऐतिहासिक तालाबों तक ये जीवनधारा पहुंचाने के लिए क्या कर रहे हैं हम। यूपी के कई ज़िलों में ज़मीन में दरार पड़ गई क्योंकि भूजल स्तर गिरने से दुबली हुई ज़मीन बारिश की धार सह नहीं पाई, तो अब वर्षा का जल नालों में न बहे, ये सुनिश्चित करने के लिए, अफसोस कहीं कुछ नहीं किया जा रहा। रेन वाटर हार्वेस्टिंग यानी वर्षा जल संचयन पर बात करने के ये सही समय है। शब्दों-सवालों-ख़बर हर तरह से हम इस मुद्दे पर अपनी आवाज़ बुलंद कर सकते हैं। कम से कम बुंदेलखंड के लिए तो ये बहुत जरूरी है। कहां बुंदेलखंड में कृत्रिम बारिश की बात कही जा रही थी, अब जब बादलों ने
डेरा जमा लिया है तो उन्हें रूठने न दें। कई बार लगता है कि ऐसी बातों को लिखने से क्या फर्क़ पड़ता है। पर क्या पता कहीं कुछ फर्क़ पड़ता हो।

22 June 2008

...और फिर, फिर, एक बार फिर, बार-बार, और फिर, और फिर....ये फिर नहीं हटता। आज एक ख़बर लिख रही थी लखनऊ में दो बच्चियां चाइल्ड लाइन संस्था में लाई गई हैं। इनमें से एक 11 साल की है काजल और दूसरी डेढ़ साल की है तारा। दोनों बच्चियों को उसके पिता ने मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर छोड़ दिया था। ये ख़बर, ये कहानी कितली बार लिख चुकी हूं, बस नाम बदल जाते हैं, ख़बर वही रहती है। चार बेटियों का पिता बेटा चाहता था, बेटियां उसके लिए बोझ थी। दो बहनों को उसने उनके मामा के पास छोड़ा और दो को मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर छोड़कर भाग गया। वो गुवाहाटी का रहनेवाला था। मुगलसराय में कुछ दिन तक काजल भीख मांगकर अपना और अपनी बहन का पेट भरती रही। नवादा अपने मामा के पास गई, उसने भी भगा दिया, फिर ये ट्रेन में बैठकर दिल्ली के लिए निकली, किसी ने बताया था कि वहां भीख अच्छी मिलती है, लेकिन ट्रेन लखनऊ की थी। काजल को अपने पिता से छूटने का कोई अफसोस नहीं। वो बिल्कुल नहीं रोती। वो अपनी बहन की मां बन गई है। घर किसी सूरत में वापस नहीं जाना चाहती। ऐसी कितनी काजल हैं। जो जन्म के बाद कभी कूड़े के ढेर पर, कभी मंदिर के सामने तो कभी ट्रेन की पटरी पर पड़ी मिलती हैं। कितनी जन्म से पहले मार दी जाती हैं। सालों से हम ये खबरें देखते-सुनते आ रहे हैं। क्या ये हालात कभी बदलेंगे। शायद ये ब्रेष्ट की ही कविता है- हर चीज बदलती है, अपनी हर आखिरी सांस के साथ, तुम एक ताज़ा शुरुआत कर सकते हो।

01 June 2008

बचाओ-'सारस'


सारस के बारे में कुछ मोटी-मोटी जानकारी। पूरी दुनिया में क़रीब 8500 सारस हैं, इनमें से 90फीसदी भारत में हैं और भारत में सारस का सबसे बड़ा बसेरा उत्तर प्रदेश में है। यूपी में इटावा-मैनपुरी बेल्ट में सबसे ज्यादा क़रीब 2500 सारस हैं। पक्षियों में सबसे बड़े आकार वाला सारस भी इनडेन्जर्ड स्पिशीज़ में शामिल है। बुंदेलखंड में आनेवाले इटावा-मैनपुरी बेल्ट में सूखे का संकट सारस पर भी पड़ा है। सारस पानी के ईर्द-गिर्द रहते हैं, झील-तालाब के पास ये अपना बसेरा बनाते हैं। अब झील-तालाब सूख रहे हैं और इसका असर सारस पर भी पड़ रहा है, प्यास से सारस की मौत की ख़बरें भी सुनने को मिली हैं। अंडे देने के लिए धान के खेत में अपना घोसला बनानेवाले इस पक्षी को अब किसान अपना शत्रु मानने लगे हैं, जो पहले किसानों का मित्र हुआ करता था, क्योंकि फसल में लगनेवाले कींड़ों को ये अपना भोजन बना लेता था। लेकिन सारस जहां रहता है उसके 4 से 5 मीटर के दायरे में फसल बर्बाद कर देता है, इसलिए किसान अपने खेतों में सारस को घोसला बनाने से रोकत हैं। वैसे झील-तालाब समेत जहां सारस रहते हैं वो ज़मीन भी इनके नाम है लेकिन गर्मी के दिनों में जब पानी सूख जाता है तो किसान उस ज़मीन पर पट्टे पर खेती शुरू कर देते हैं जो कि अवैध है। सारस को बचाने के लिए झील-तालाबों को जिंदा रखना होगा। नहीं तो धरती का ये सबसे बड़ा पक्षी अलविदा कह देगा।