28 July 2008

अगर कहीं मैं तोता होता

अगर कहीं मैं तोता होता
तोता होता तो क्या होता ?
तोता होता।
होता तो फिर ?
होता 'फिर' क्या?
होता क्या?
मैं तोता होता।
तोता तोता तोता तोता
तो तो तो तो ता ता ता ता
बोल पट्ठे सीता राम
(रघुवीर सहाय की एक कविता...एक पहेली)

27 July 2008

तस्वीरें कहती हैं, शब्दों से कुछ ज़्यादा

(ये तस्वीर मुझे ई-मेल पर मिली, अच्छी लगी, इसलिए ब्लॉग पर भी चिपका रही हूं)

26 July 2008

गृहणी, अन्नपूर्णा,घरवाली...

भारत परमाणु करार पर दस्तखत करेगा या नहीं, पाकिस्तान इसके विरोध में है, चीन इसके पक्ष में हैं, बैंगलोर में सीरियल ब्लास्ट, फिर अहमदाबाद में सिलसिलेवार धमाके, कभी न रुकनेवाली घटनाएं, हमेशा कुछ ऐसा होगा कि हम चौंक जाएंगे, या विचारों की जुगाली करेंगे, पर जो लोग बड़े मुद्दों पर बड़ी बातें नहीं करते, जिनकी समस्या घर की कामवाली के न आने से शुरू होती है, प्याज़ के आंसू जिन्हें रूलाते हैं, सिंक में पड़े बर्तन जिनकी खीज बढ़ाते हैं, रोटी सेंकता गरम तवा जिनके माथे पर पसीना टपकाता है ,
सब्ज़ी में नमक कम पड़ जाने पर जो खुद को माफ नहीं कर पाती, जब तक कि एक स्वादिष्ट सब्ज़ी नमक की उस याद को भुला दे, जो दिन भर अपने पति का इंतज़ार करती है, जो तय समय पर कभी नहीं आता, जिनका दिन अपने बच्चे को स्कूल भेजने और उसका होमवर्क पूरा कराने में गुज़रता है, जो देशहित के बड़े मुद्दों पर बात नहीं करती, घर की छोटी-छोटी समस्याओं की टेंशन में जीती हैं, हमारे समाज में, हमारे देश के विकास चक्र में, हमारी अर्थव्यवस्था में, उनका उतना ही योगदान है, जितना उनका जो इस दिशा में बहस, बातें और काम करते हैं, या महसूस करते हैं कि वो ऐसा कुछ कर रहे हैं, या फिर वाकई ऐसा कुछ कर रहे हों। उन तमाम लोगों, ख़ासतौर पर उन तमाम महिलाओं को उनके हिस्से का सम्मान नहीं मिल पाता। जबकि उनका काम बहुत मुशिक्ल होता है। जिसमें उनकी पूरी ज़िंदगी खर्च हो जाती है।

24 July 2008

तो ये क्या कुछ कम है

इस गहराई में आकर महसूस किया
ऊंचाई तो बहुत दूर है
अगर कोशिश कर
समतल को ही पा लें
तो ये क्या कुछ कम है
सागर मंथन में विष-अमृत
क्या कुछ नहीं निकला
हम भी आत्ममंथन कर लें
मन के सागर के
अमृत को पा लें
अपने ज़हर को पी लें
तो ये क्या कुछ कम है
बहती नदियां,बहती हवा
पर्वत डटा हुआ
न बहें हम, न सही
न डटें हम न सही
औंधे लेटे हुए हैं
सीधा खड़ा होकर
गीत मधुर कोई गा लें
तो ये क्या कुछ कम है

19 July 2008

...54 साल बाद

मचांग को याद नहीं कि कब उसकी जवानी परवान चढ़ी, कब बुढ़ापे ने दस्तक दी, कब चेहरा झुर्रियों में खो गया और कैसे सीधी तनी रीढ़ झुकती चली गई। पिछले चौवन सालों से उसकी ज़िंदगी में गिनती की कुछ चीजें हैं.... जेल की सलाखें, एल्यूमिनियम की टेढ़ी-मेढ़ी प्लेट, टूटा गिलास, दो जोड़ी कैदी की वर्दी, एक फटा कंबल। ऐसी ही कुछ और चीजें आप अपनी समझ से इनमें जोड़ सकते हैं। पिछले चौवन सालों में उसने कोई लंबी दूरी तय नहीं की, सलाखों से अंदर कुछ कदम अंदर और कुछ कदम बाहर उसने बार-बार, बार-बार नापे हैं। इन्हें चंद कदमों में उसकी दुनिया शुरु भी होती है, खत्म भी हो जाती है। पिछले चौवन सालों में उसकी कल्पनाएं भी जेल के मैदान से दिखने वाले आकाश जितनी सीमित हो गई। उसके लिए तो आकाश सिर्फ उतना ही है जितना जेल के अंदर से दिखता है। आज वो सतहत्तर साल का है। चौवन साल बाद आज उसे आज़ादी मिली है। मचांग सोचता है... जब वो जेल आया होगा उसकी उम्र क्या रही होगी। वो हिसाब नहीं लगा पाता, पर हम सब इतना हिसाब तो लगा ही सकते हैं। मचांग को अपने घर की याद है, मां-बाप की याद है, मां के हाथ बनी रोटियों की और पिता की फटकार की भी याद है। पर उसे ये याद नहीं कि उसके भाई-बहनों की संख्या ठीक-ठीक कितनी होगी। शायद उसे छोड़कर चार और... नहीं-नहीं छोटी को तो मै भूल ही गया..शायद पांच लेकिन एक भाई तो शायद बचपन में ही बीमारी के बाद चल बसा था। तो अब चार। लेकिन जब वो जेल गया था तो मां की गोद में एक नन्हा बच्चा था, उसे भी जोड़ लें तो हुए पांच। मचांग अपने भाई-बहनों की सही संख्या का अनुमान तक नहीं लगा पाता। आज आज़ादी मिली है लेकिन क्या करे इस आज़ादी का, कहां जाएं, किससे मिलें, क्या किसी को उसकी याद होगी, मचांग सोचता है। मचांग को तो कोई अफसोस नहीं कि वो इतने बरस जेल में रहा क्योंकि जेल के अंदर इतने बरस ने अनुभूतियां छीन लीं, सुख-दुख में भेद छीन लिया, उसके लिए तो जो हो रहा है इसलिए हो रहा है क्योंकि वो होना है। उसे कोई अफसोस नहीं लेकिन ये जानकार शायद आपको अफसोस होगा। मचांग को तो ये ठीक-ठीक याद भी नहीं कि वो जेल क्यों लाया गया था। जेल आने के कुछ सालों तक तो याद रहा होगा लेकिन अब वो उसकी यादें भी गडमड हो गई हैं। हमें ये तो पता है कि मचांग को जेल क्यों लाया गया लेकिन इतने बरस क्यों जेल में क्यों रखा गया ये न पूछिये। पुलिस के पास भी इसका आपराधिक रिकॉर्ड तो दूर मुकदमे की कार्रवाई तक के कोई रिकॉर्ड नहीं हैं। अगर कानून की भाषा में बात की जाए तो...। कोशिश करके देखते हैं। हुआ ये कि चौवन बरस पहले मचांग को खतरनाक हथियार से हमला करने के आरोप में <धारा 326 के तहत> गिरफ्तार किया गया। जिसकी अधिकतम सज़ा दस साल हो सकती है। तो हथियार रखने के आरोप में तेईस साल के मचांग को असम पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। बस इतना ही। उसके बाद मचांग पर कोई मुकदमा नहीं चला, कोई सुनवाई नहीं हुई, कोई सज़ा नहीं सुनाई गई। बस मचांग गिरफ्तार किया गया और जेल भेज दिया गया। पुलिस के दफ्तर में इस समय तेईस बरस पहले मचांग की गिरफ्तारी तक के कागज नहीं, क्या-क्यों-कैसे हुआ, कुछ पता नहीं। उस पर एक आरोप लगा लेकिन वो साबित नहीं हुआ क्योंकि किया नहीं गया। शायद आरोप साबित हो जाता तो भी बेहतर था लेकिन नहीं हुआ। हम-आप सिर्फ अफसोस जता सकते हैं लेकिन मचांग ने इस क्रूर हकीकत को जिया है। पुलिस के पास मचांग से संबंधित कोई रिकॉर्ड नहीं है। तब जिन अधिकारियों ने वो गलती की थी वो अब नहीं रहे। अब के अधिकारियों के लिए मचांग सिर्फ एक गलती है, भयानक गलती जो सुधारी नहीं जा सकती। ख़ैर ये तो बीती बात हुई। इंसान होने की एक अच्छी बात है कि चाहे दुख हो या सुख, वक़्त के साथ वो सब भूल जाता है। हां, वक़्त कुछ नहीं भूलता सब दर्ज़ करता चलता है। लेकिन यहां तो वक़्त भी मचांग को भूल गया, और मचांग वक़्त को। गांव की धूमिल यादें हैं, रास्ते भी धुंधलके में याद आते हैं। आज़ादी मिली है, ग़ुमनाम आज़ादी, मचांग सोच पाता है कि चलो उस धूमिल गांव और धुंधले रास्ते को खोजा जाए। सोचता है वो अपने गांव से कितनी दूर होगा, ये रास्ता कैसे पार किया जाएगा। बहुत दिनों बात मचांग कुछ सोच रहा है। उसकी दिमाग की शिराओं में इतने सालों बाद शायद पहली बार सोच के हार्मोन्स निकल रहे हैं। वो नक्शा बनाने की कोशिश करता है, नहीं बना पाता। मचांग की आंखों में एक चमक कौंधी जैसे तूफान के समय आकाश में बिजली कौंधती है। रेलगाड़ी...हां रेल जाती है उसके गांव। लेकिन कौन सी। मचांग राहगीरों से पूछना चाहता है लेकिन वो बोल नहीं पाता। इतने सालों तक वो कुछ नहीं बोला था। मचांग सामने एक बड़े से पेड़ की ओट में जाता है ताकि सड़क चलते लोग उसे देख न सकें। वो बोलने की कोशिश करता है। जबड़े को खींच कर कानों तक ले आता है, चेहरे-गले की रगें खिंच जाती हैं, ऊं-गूं-ऊं जैसी कुछ आवाज़ निकलती है, ज़ुबान हिलती है, गला अंदर तक दिखता है, लेकिन बोल नहीं पाता। इतने सालों बाद आंखों से आंसू निकले। पिछले चौवन सालों में मचांग कभी नहीं रोया। शायद ज़िदगी मचांग के शरीर में प्रवेश कर रही थी हालांकि उसका जिस्म अब 77 साल के एक बूढ़े का जिस्म है। एक जर्जर मकान की तरह जर्जर। लेकिन बांध से छोड़े गए पानी की तरह उसके जर्जर जिस्म में भी एक ज़ोरदार धमक हुई। हां, सच मानिए ये ज़िंदगी का ही प्रवेश था। मचांग एक बार फिर हरे पत्तों में और छिपकर बोलने की कोशिश करता है। गला खोलता है, ज़ुबान हिलाता है, फिर कोशिश करता है, फिर कोशिश करता है, फिर कोशिश करता है। म्म्म्म्मां...आआआ। कुछ ऐसी ही ध्वनि। कुछ हुआ शायद। हां उसके कानों ने उसकी ज़ुबान से निकले गडमड अक्षर सुने, वो सोचता है यानी शब्द बन सकते हैं। उसे अपने गांव का नाम याद है(.....)। वो बोलने की कोशिश करता है, ख़ुश होता है, रोता है। लेकिन हम अभी ख़ुश नहीं हो सकते। क्योंकि हमें अभी उसकी भाषा समझ नहीं आ रही, हां यदि शब्दों की जगह भावनाओं को सुनें तो कुछ सुनाई दे सकता है। बड़ी देर तक पेड़ के पीछे इस अभ्यास के बाद मचांग बाहर निकलता है। अब वो थोड़ा बदला सा लगता है। उसमें थोड़ा आत्मविश्वास है और पूरी ज़िंदगी। वो रास्ते भर बोलने की कोशिश करता है। कुछ-कुछ बोलता है। कुछ-कुछ नहीं भी। दो दिन इसी तरह एक सड़क किनारे गुज़र जाता है। मचांग को रेल की पटरियां दिखाई देती हैं, पटरियां पकड़ वो एक छोटे से स्टेशन तक पहुंच जाता है। दो दिन स्टेशन पर गुज़र जाते हैं, क्योंकि उसे नहीं मालूम कौन सी ट्रेन उसके गांव तक जाएगी। अब गांव और वहां के धुंधले रास्ते की तस्वीर उसके दिमाग में कुछ साफ हो रही है। वो तस्वीर को जोड़ कर एक पूरी फिल्म बनाने की कोशिश कर रहा है। उसकी इस फिल्म में एक पौधा बार-बार आता है। मचांग देखता है कि वो अपने कुछ दोस्तों के साथ वो पौधा रोप रहा है। उसे पानी दे रहा है। जानवरों से उसकी रक्षा कर रहा है। वो पौधा मचांग के दिमाग में अटक जाता है। उसे याद आ रहा है, उसने कल्पना की थी कि एक दिन ये पौधा बड़ा होकर पेड़ बनेगा। उसकी शाखाएं होंगी। शायद एक ख़ास मौसम में उसमें फूल भी लगते हैं। कौन सा मौसम। अचानक उसकी धमनियों में रक्त का बहाव तेज़ हो जाता है। यही मौसम। हां-हां यही मौसम। हमारे-आपके लिए अच्छी बात ये है कि मचांग की अनुभूतियां लौट रही हैं। ये अक्टूबर का महीना है,....ऋतु। मचांग अब अपने शरीर को छूकर गुज़रने वाली हवा को महसूस करने की कोशिश करता है। एक बार फिर उसकी आंखें चौंधियाती हैं। आप जानकर और ख़ुश होंगे वो हंसने की कोशिश करता है। देखिए वो हंस रहा है, हालांकि लोग उसकी हंसी समझ नहीं पा रहे। लेकिन शायद समझ जाएं। तभी अचानक उसके कानों में कुछ आवाज़ आती है।........एक भीड़ से आ रही थी वो आवाज़। कुछ लोग थे, कुछ नौजवान लोग। वहीं से आवाज़ आयी। एक बार वही शब्द। अरे यही तो वही शब्द है, उसके गांव का नाम। हां-हां यही शब्द तो उसके गांव का नाम है। प्लेटफॉर्म पर ट्रेन रुकती है। वो भीड़ ट्रेन में घुसने लगती है। मचांग डर जाता है उन लोगों को जाता देखकर। पता नहीं वो इस शब्द को दुबारा कब सुन सकेगा। शायद ये लोग उसके गांव के हों। वो अपनी पूरी शक्ति लगाकर सोचता है और पूरी समझ के साथ उस ट्रेन में उनके पीछे घुस जाता है। उसी भीड़ की बगल में डरा-सहमा बैठ जाता है। वो उस भीड़ से बात करना चाहता है। क्या बोले, गला फिर खोलता है। ट्रेन में वो चिल्ला भी नहीं पाता। ट्रेन चल पड़ती है। वो उनसे बातचीत की कोशिश करता है। डर जाता है। बात नहीं कर पाता है। कुछ दूरी की यात्रा के बाद वो एक बार फिर कोशिश करता है। उस भीड़ मे से जो सबसे सहज-विनम्र शक़्ल उसे दिखती है। वो उससे मुखातिब होता है। कुछ उलझे शब्द निकालता है और इस असफल कोशिश से इस बार उसकी आंखों में दुख के आंसू आते हैं। मचांग बोल नहीं पाता लेकिन उसका अंदाज़ा एक दम ठीक निकलता है। वो व्यक्ति वाकई सहज विनम्र था, उसने मचांग की तरफ दया भरी नज़र डाली। उसे लगा वो भूखा है तो अपने साथ लाए खाने में से एक रोटी उसकी तरफ बढ़ा दी। रोटी देखकर मचांग पहले तो कुछ समझ नहीं पाया। पिछले चौवन सालों से वो जेल की जली-कटी सख्त रोटियां ही खाता आया है। ये रोटी तो बहुत छोटी-मुलायम और खूबसूरत दिखती है। मचांग सोचता है क्या मै इसे खा सकता हूं। थोड़ी देर तक रोटी को घूरने के बाद वो उसपर टूट पड़ता है। सज्जन व्यक्ति उसकी भूख का अंदाज़ा लगाता है... वो कुछ और खाना उसकी तरफ बढ़ा देता है। भीड़ के कुछ साथी सो रहे होते हैं, लेकिन मचांग नहीं सोता। कहीं वो सो गया और ये लोग उतर कर चले गए तो। भरपेट खाने के बाद ख़ूबसूरत नींद की दस्तक के बावजूद वो नहीं सोता। सबकी नींद एक-एक कर टूटती है, वो मचांग को देखते हैं, इतनी देर ट्रेन के डिब्बे में बैठने के बाद और मचांग की हालत देखने के बाद उन्हें मचांग से सहानुभूति होती है। वे उससे बातचीत की कोशिश करते हैं, बातचीत सफल नहीं हो पाती लेकिन मचांग की निश्छल हंसी उन्हें भाती है। इस सफ़र की मंज़िल आ गई, भीड़ ट्रेन से उतर रही है। मचांग भी इनके साथ जल्दी-जल्दी उतरता है। इनके पीछे-पीछे चलता है। उस सज्जन व्यक्ति ने एक बार फिर मचांग पर निगाह डाली, पूछा- वो उनके पीछे-पीछे क्यों चल रहा है। मचांग उस शब्द को, अपने गांव के नाम को दुहराने की कोशिश करता है। आपको जानकर आश्चर्य होगा लेकिन इस बार वो अपने गांव का नाम उच्चारित कर लेता है। नौजवान पूछते हैं वो इस गांव को कैसा जानता है। वो इशारे से बताता है, ये मेरा गांव है। बार-बार, कई बार वो अपने गांव का नाम दुहराता है। नौजवान उसे अपने साथ ले जाते हैं। मचांग को रास्ते याद आते हैं। चौवन सालों का फर्क उसके गांव पर भी पड़ा है लेकिन ये गांव ज़्यादा नहीं बदला है। अचानक मचांग को वो रास्ता दिखता है जो उसके घर को जाता है, मचांग दौड़ पड़ता है, पूरी शक्ति के साथ। गिरता है, उठता है, दौड़ता है, रोता है, हंसता है और स्तब्ध रह जाता है। घर के बाहर जो पौधा उसने रोपा था। वो पेड़ बन गया है, उसकी शाखाएं फूलों से लदी हैं। वो उसका पेड़ है। मचांग उस पेड़ से लिपट कर रोता है। नौजवान उसे देख रहे हैं। ये उसका पेड़ है। कम से कम कोई तो है उस वक्त का, जो उसे पहचानता है। जिसे वो पहचानता है। लेकिन उसे अपना घर वहां नहीं दिखता। कहां होगा उसका घर और घरवाले। कोई बात नहीं पेड़ तो है। मचांग उसी पेड़ के नीचे रहता है। वहां से कहीं नहीं जाता। दो-तीन दिन बाद। एक लंबी रात के बाद एक सुबह आती है। मचांग हिलता-डुलता नहीं बस सोता है, चौवन सालों से भी लंबी नींद। मचांग सो चुका है। गांव की भीड़ इकट्ठा है। मचांग की पोटली खोली जाती है। एक चिट्ठी मिलती है। चौवन साल बाद रिहा किया गया मचांग। चौवन सालों में उसकी ज़िंदगी का हर लम्हा जेल की चारदीवारी के भीतर मिट गया। लेकिन एक चीज नहीं बदली थी, उसका नाम मचांग। गांव का एक बुजुर्ग पहचानता है उस नाम को। लेकिन अब अंत हो चुका है। वो व्यक्ति रोता है, अपने बड़े भाई की मृत्यु पर। याद करता है, कभी इस नाम का उसका भाई हुआ करता था। उसकी मां ने बताया था। जिसकी याद में वो खाने के वक्त एक कौर पक्षियों को डालती थी।

18 July 2008

लो अब ज़िद्द बांधकर बैठ गया मन
कहता है सारंगी दे दो
मुझको मीरा बन जाने दो
या पर्वत पर चढ़ जाने दो
सागर को मथ लेने दो
और अचानक रूठ गया मन
नहीं मुझे उड़ जाने दो
अंबर में बस जाने दो
या ख़ुश्बू बन छा जाने दो
जाने कहां दुबक गया मन
अंधेरे में डूब गया मन
डरते-डरते टूट गया मन
धीरे-धीरे पंख पसारे
आसमां में उड़ चला मन

17 July 2008

प्रजातंत्र

प्रजातंत्र से हमारा अभिप्राय उस सरकार से है जो गधों की होती है और गधों के भले के लिए गधों के द्वारा ही चलाई जाती है। जनता की सेवा करने के इच्छुक गधों की तादाद इतनी ज्यादा होती है कि सरकार बनाने के लिए चुनाव कराया जाता है। इन चुनावों में लाखों रुपयों का खर्च आता है। खर्च के अतिरिक्त शराब, गुंडागर्दी और काले धन का प्रयोग भी बदस्तूर किया जाता है। चुनाव आमतौर पर हर पांच वर्ष बाद होते हैं। चुनाव जीतने के बाद गधा लोग नेता कहलाते हैं। वे टोपी पहनते हैं, सरकारी मोटरों पर चलते हैं, शानदार कोठियों में रहते हैं, भ्रष्ट अधिकारियों की मदद से आए चुनाव के लिए पैसा इकट्ठा करते हैं और बाकी वक़्त में देश के लिए कानून बनाते हैं, सरकार चलाते हैं। जिस दल में ज्यादा गधे होते हैं वही दल सरकार बनाती है और इसी कारण कभी-कभी ऐसी नाज़ुक स्थिति आ जाती है कि दलबदल करने के संदर्भ में एक-एक गधे की कीमत पंद्रह लाख रुपये तक (अब इसे करोड़ में भी गिना जा सकता है)पहुंच जाती है। इतनी भारी रकम के सामने गधा दलबदल न करे तो और क्या करे?
(रवींद्रनाथ त्यागी की रचना)

14 July 2008

किसी भी बात पर अपना निजी अंतिम फैसला सुनाने से पहले एक फिर सोच जरूर लेना चाहिए। जल्दबाज़ी कई बार आत्मघात सरीखी हो जाती है। मैंने भी कुछ ऐसा ही किया। मोहल्ले पर असद जी की कविताओं पर की गई अपनी टिप्पणी पर बहुत शर्मिंदा हुई। अगर मेरे पास अधिकार होता तो मैं अपनी बकवास टिप्पणी को वापस ले लेती। उस टिप्पणी के बाद साहित्य में रुचि रखनेवाले अपने कुछ साथियों से भी बात की। शर्मींदगी और बढ़ गई। असद ज़ैदी जी से बात करने के बाद कुछ राहत जरूर महसूस हुई। और फिर कविताएं तो सांप्रदायिक नहीं हो सकती। अच्छा तो यही है कि हम सांप्रदायिकता के ताने बाने से निकलकर भविष्य के लिए कुछ बेहतर सोचे। हिंदू-मुस्लिम-सिख-इसाई के फसाद में कभी किसी का भला हुआ क्या। कश्मीर हमारे सामने है।

13 July 2008

हमारी आज़ादी, तुम्हारी ज़ंजीरें

हमारी आज़ादी की सभी उड़ानें रद्द हो जाती हैं, जब तय सीमा से ऊंचा उड़ने पर पता चलता है कि एक न दिखाई देनेवाली ज़ंजीर हमारे पैरों में पड़ी हुई है। भरपूर नीला आसमान जहां से दिखाई पड़ने लगता है, दूरियां जहां किसी स्केल पर नहीं नापी जा सकतीं, उस उड़ान का एहसास होने से पहले ही हमारे पंख फड़फड़ाने लग जाते हैं और अचानक पता चलता है कि एक बहुत मोटी ज़ंजीर में पैर जकड़े हुए हैं। इस जंज़ीर का पता उस बंधन के बाद सबसे ज्यादा शिद्दत से महसूस होता है जिसे हम शादी कहते हैं। अचानक पता चलता है अरे मैं तो बंध गई हूं, बंधन में नहीं, ज़ंजीर में। इस ज़ंजीर की ख़ास बात भी होती है। लड़की खुद को इससे छुड़ाने की कोशिश भी नहीं करती। ये ज़ंजीर आदत-मोहब्बत-मुसीबत सब बन जाती है। फिर ज़ंजीर तोड़कर खुला आसमान डराने लगता है, उड़ने की चाह भी दम तोड़ देती है।
हां शुरु-शुरू में वो फड़फड़ाती जरूर है। मदद के लिए कोई नहीं आता। जो आता है वो दुनियारी का रट्टू पाठ पढ़ाता है। ऐसा ही होता है, वैसा ही होता है, फिर फड़फड़ाहट भी कम होने लगती है। ज़िंदगी मशीन सरीखी होने लगती है। हर सुबह एक जैसी, हर दोपहर उनींदी, हर शाम उम्मीदें जगाती, हर रात उन उम्मीदों को दफ्न करती, वो मर चुकी होती है, ज़िंदा होने की सोई तमन्ना के साथ। हां वक़्त के साथ ये स्थिति बदली है। ज़ंजीर कुछ बड़ी हुई है, लेकिन टूटी नहीं। लड़की की ज़िंदगी एक जुआ होती है, दांव लग गया तो लग गया, नहीं तो गए काम से।

05 July 2008


रात में ख़ामोशी, बहार में ख़ुश्बू

चमन में फूल, ज़िंदगी में धूल

आम बात है...

चलती-फिरती सड़क, किनारे ठहरे हुए

भागता वक़्त, ज़िंदगी रूकी हुई

आम बात है...

भूखा पेट, उभरी हड्डियां

सोई हुई आत्मा, जागा हुआ इंसान

दबी हुई चीख, ख़ामोश ज़ुबान

ये भी तो

पर क्यों

आम बात है...

03 July 2008

दो कविताएं, डायरी से

लग जाने दो मुझे ठोकर
वो चोट मेरी अपनी होगी
उंगलियां पकड़-पकड़ चलने से
मेरा वज़ूद टूटता है
कदम गिर-गिरकर
फिर उठेंगे, फिर चलेंगे
और
मेरी वो राह अपनी होगी
मुझे ले लेने दो
मेरे हिस्से का दर्द
साथ निभाओ तो
साथी बनकर
जीवन मेरा
मैं जियूं जी भरकर
वो ज़िंदगी
मेरी अपनी होगी
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बहेलिया

रात की कराह पर बांवरा बहेलिया
ले चला सूर्य को हांकता बहेलिया

सरिता की धार पर प्यासा बहेलिया
ग़ुम गए किनारों को ढूंढ़ता बहेलिया

मंदिरों की बाड़ी पर घूमता बहेलिया
देख रहा भूख को नाचता बहेलिया

बंगलों की दहलीज़ पर फिरकता बहेलिया
रोटियों के दर्द को पुचकारता बहेलिया

धुंध के छलावों पर लौटता बहेलिया
ले चला नींद को दुलारता बहेलिया