25 September 2008

धिक्कार है

एक एसएमएस टहलता-टहलता मेरे मोबाइल के इनबॉक्स में भी आया। आप भी पढ़ें-

" दिल्ली पुलिस का एक जाबांज़ इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा आतंकवादियों से लड़ते हुए चार गोलियां सीने पर खाकर शहीद हुए। मिला क्या ? पांच लाख रुपये।

युवराज ने छे छक्के मारे तो एक करोड़ मिला

बीजिंग में जीते खिलाड़ियों ने भी लाखों नहीं बल्कि करोड़ से ज्यादा कमाए
(बिंद्रा-4 करोड़ से ज्यादा, सुशील दो करोड़ से ज्यादा, विजेंद्र को लाखों रुपये इनाम मिले, साइना को क्वालीफाई करने पर ही 25 लाख रूपये इनाम मिले)

डेंगू से बीमार बेटे को छोड़ कर ड्यूटी पर शहीद हो जाए तो सिर्फ 5 लाख
(सुधार: 5लाख रुपये उत्तराखंड सरकार ने और दिल्ली सरकार ने 11लाख रुपये दिए(इसमें उनकी ग्रेच्युटी वगैरा शामिल है))

धिक्कार है "

20 September 2008

थोड़ा सा प्लास्टर ऑफ पेरिस और वो मुस्कान

कॉलेज के वक़्त की बात है। लखनऊ के हजरतगंज बाज़ार से गुज़र रही थी। तभी मेरी नज़र एक लैंपशेड पर पड़ी। जो दरअसल एक छोटा सा sculpture था, एक औरत का। उस औरत के चेहरे पर हल्की सी प्रसन्न मुस्कान थी, सौ फीसदी संतुष्टि का भाव जो किसी आम इंसान के चेहरे पर देखने को कम ही मिलता है (ये सारे भाव भी लिखने के साथ ही समझ में भी आ रहे हैं)। औरत की मूर्ति के ऊपर एक छोटा सा लैंपशेड बना हुआ था। बहुत ही सुंदर।
तब जेब में पॉकेटमनी के पैसे ही हुआ करते थे। डेढ़ या दौ सौ रूपये का लैंपशेड रहा होगा। मैंने उसे बहुत ग़ौर से देखा और न खरीदने का फैसलाकर घर वापस आ गई। पर बहुत देर तक वो लैंपशेड मेरे अंदर खलबली मचाता रहा। उसे खरीदने के बारे में नहीं सोच रही थी पर बहुत बेचैनी हो रही थी। घर से पैसे मांगने का सवाल ही नहीं उठता था। खरीदने का ख्याल बार-बार दिमाग़ से झटक दे रही थी, पॉकेटमनी का एक बड़ा हिस्सा खर्च करना पड़ता, तब पॉकेटमनी बहुत कीमती हुआ करती थी।
पर आखिरकार मन के आगे झुक ही गई। थोड़ी देर बाद स्कूटर उठाया, बहन को साथ लेकर उसी दुकान पर पहुंच गई। लैंपशेड लिया और ड्राइंग रूम के एक कोने में उसके लिए जगह बना दी। कुछ दिनों तक बार-बार जाकर उसे झांक भी आती। धूल का कतरा भी होता तो झट साफ करती। फिर धीरे-धीरे उससे ध्यान हटता गया। औरत की उस सुंदर मूर्ति पर धूल का कतरा क्या एक पूरी मोटी परत चढ़ गई थी। मन शायद उससे भर गया था। कई बार कुछ सेकेंड्स के लिए दिमाग कुलबुलाता भी था, इसे लेने के लिए मैं कितनी उतावली थी और अब कभी ध्यान ही नहीं जाता। उसे लेने का उतावलापन-बेचैनी और छोड़ देने की बेरुख़ी दोनों मुझे हमेशा अजीब लगते रहे, कई बार।
इस बार लखनऊ गई थी तो उस लैंपशेड का शेड उखड़ चुका था। पर प्रसन्न मुस्कान के साथ औरत की मूर्ति सलामत थी। उसकी पुरानी जगह भी छिन चुकी थी। उसे बाहर वेस्टेज वाले कोने में डाल दिया गया था। एक बार को मन किया कि उसे अपने साथ ले आऊं पर लाई नहीं। वो पुराना ख्याल फिर आया। औरत की मूर्ति वाले लैंपशेड को लाने की बेचैनी और फिर बेखयाली। अब भी प्लास्टर ऑफ पेरिस पर गढ़ा गया वो चेहरा, उस पर उकेरी गई मुस्कान मेरे ज़ेहन में समायी हुई है, अजीब भाव के साथ।
(चित्र गूगल महाराज की कृपा से)

15 September 2008

लेटर फ्रॉम दि प्रिसाइडिंग एंजेल

लेटर फ्रॉम दि प्रिसाइडिंग एंजेल
स्वर्ग से प्रध्रान फरिश्ता एक कोयला व्यापारी को पत्र लिखता है- हम सार्वजनिक प्रार्थना, जैसे चर्च की, को कम नंबर देते हैं। अधिक नंबर देते हैं मन की गुप्त प्रार्थना को। तुमने चर्च में प्रार्थना की प्रभु, सब लोग सुखी हों पर घर पर तुमने मन से प्रार्थना की, कि प्रभु मेरे प्रतिद्वंदी कोयला व्यापारी का जहाज़ आ रहा है। तू तूफान उठा दे जिससे वो डूब जाए। तुम्हें सूचित किया जाता है कि तूफान अभी स्टॉक में नहीं है। फिर भी हम किसी तरह उसका कुछ नुकसान करेंगे।
तुमने चर्च की प्रार्थना में तो कहा कि प्रभु सब मनुष्य सुखी हों। पर घर में मन में कहा- मेरा यह पड़ोसी दुष्ट है। मुझे तंग करता है, इसे मौत दे दें। तुम्हें सूचित किया जाता है कि मौत सबसे बड़ी सज़ा है। वो उसे नहीं दी जा सकती। तुम्हारे संतोष के लिए हम उसे निमोनिया देते हैं।
(हरिशंकर परसाई की किताब आवारा भीड़ के खतरे से ये टुकड़ा उठाया है। अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन के इस व्यंग का उन्होंने ज़िक्र किया। ऑफिस की एक घटना में इस टुकड़े की याद हो आई थी।)

चले जा रहे हैं...चले जा रहे हैं





हम (यानी भारतीय) संख्या में इतने ज्यादा है, हर चीज बांट-बांटकर खानी ही पड़ती है। रोटी भी, दुख भी, दर्द भी, ख़ुशी भी और वक़्त भी। अगर किसी सरकारी दफ्तर या बैंक जैसी जगह जाते हैं तो हम एक लंबी कतार में घंटों खड़े रहते हैं, इंतज़ार करते हैं, करना पड़ता है (इसमें बिना कतार के घुस जानेवाले और कोई चक्कर चलाकर अंदर ही अंदर काम करा लेनेवालों की बड़ी संख्या को घटाना भी है)। च्च्च...च्च्चचचचचच। हर कोई बेचारा महसूस करता है, पर एक अरब से ज्यादा आबादी वाले देश में ये कोई समस्या नहीं, आम बात है, हमारी आदत है। बस स्टैंड पर भीड़, सड़क पर भीड़, peack hour में तो भीड़ ही भीड़। सड़क पर रेंगती चलती गाड़ियां, एक दूसरे को हॉर्न बजाकर परेशान करते ड्राइवर, भीड़ को कोसते, जबकि वो खुद भीड़ का हिस्सा ही तो हैं। हमें डॉक्टर के पास जाना हो तो बीमारों की लंबी कतार, घंटों इंतज़ार, घर में ही डिसप्रिन-विसप्रिन खाकर हर बीमारी को टाले जाने की हद तक टालते हैं। शनिवार-रविवार हमसब मॉल में जाते हैं, शॉपिंग करें न करें मस्ती खूब होती है और मॉल ठसाठस भरा हुआ। वहां भी कतार में लगकर एंट्री होती है। खरीदारी करने से ज्यादा वक़्त बिल चुकाने के लिए कतार में लगकर जाया होता है। अगर कहीं ऑफर-सॉफर मिल रहा तो बैंड बज गया बीड़ू। फिर तो लोग टूट पड़ेंगे, जाने कहां छिपे रहते थे, अचानक इतने ज्यादा लोग दिखने लगते हैं। इसका मतलब ये नहीं कि हम सिर्फ मॉल में ही जाते हैं, हम सोम-मंगल बाज़ार में भी ऐसे ही टहलते हैं, धक्कमधुक्की करते हुए। अब गलती से कहीं जाना पड़ गया तो दो-तीन घंटे तो हम बस के इंतज़ार में भीड़ को बनाते हैं, कई बसों को छोड़ना होता है किसी बस में बड़ी मुश्किल से दो सीट मिल पाती है, और एक ठंडी आह!!!! ट्रेन में तो दो-तीन महीने पहले रिजर्वेशन करा लो तभी ठीक है बाकि प्लेटफॉर्म पर तो भिड़ना-भिड़ाना होगा ही। प्लेन में उड़ने वालों की संख्या भी कम नहीं। हम किसी बड़े रेस्तरां में जाते हैं और वेटर को आवाज़ लगाते रह जाते हैं, गुस्साते हैं, सौंफ चबाते हैं। हमारे चलने के लिए ज़मीन कम पड़ गई है, रहने के लिए घर। बहुमंज़िला इमारतें खड़ी होती जा रही हैं, एक-एक कमरे का फ्लैट लाखों में बिक रहा है, तीन कमरे वाले फ्लैट तो करोड़पति ही ले सकते हैं। फिर भी हम मजे से जी रहे हैं। क्या करें जीना ही पड़ेगा। अब कतार का रोना लेकर जीना तो नहीं छोड़ सकते। महंगाई की तरह हम भी संख्याबल में बढ़ते ही जा रहे हैं। जा रहे हैं। हम चले जा रहे हैं, चले जा रहे हैं....... (आज का दिन कतारों में ही गुजरा, इसीलिए ये दुखांत, फोटू गूगल से साभार)

07 September 2008


दीदी को लंबा करो। दीदी को मोटा करो। दीदी को गोरा करो। अरे कोई है जो दीदी की बात सुन रहा है। एक कंपनी है। जो दीदी की बात सुन रही है। छे-सात साल का बच्चा पूरी रेलयात्रा के दौरान मेरे पीछे वाली सीट पर ऐसे ही उधम मचाता रहा। अपनी दीदी के बारे में ऐसे ही मज़ेदार फिकरे कसते हुए फिक्र करता रहा। उससे साल-दो साल बड़ी दीदी किसी तरह गुस्से को पीती रही। वो उसका पीछा छोड़ने को तैयार नहीं था और दीदी किसी भी तरह उसे दूर धकेल देना चाहती थी। पूरे सफ़र के दौरान दोनों के बीच विश्वयुद्ध होता रहा। ज्यादातर बाज़ियां दीदी के ही नाम रहीं। बड़ी भी थी और छुटके को मां-बाप की डांट ज्यादा पड़ती होगी। हालांकि मां-बाप बच्चों के इस विश्वयुद्ध पर ध्यान नहीं दे रहे थे। लेकिन मेरे बगल में बैठी महिला कोफ्त खा रही थी। उफ्फफ, ओहहहहो, कैसे बच्चे हैं....। मैं तो बीच-बीच में नींद के टुकड़े बटोर ले रही थी। लेकिन बच्चों के नटखट शोर में उसे नींद नहीं आ पा रही थी। तभी बच्चों की टीम की ओर से अखबार का एक बंडल खटाक हमारी तरफ आकर गिरा और मेरी गर्दन पर कराटे चॉप की तरह पड़ा। उस वक़्त मुझे गुस्सा आया। मैंने पलटकर देखा तो सब शांत हो गए। फिर हंगामा चालू। वैसे मुझे उनकी बातें और झगड़े दोनों अच्छे लग रहे थे। गुस्सा चला गया। लेकिन बगल की सीटवाली महिला को ट्रेन से उतरने के बाद ही तसल्ली मिली। इस बीच दोनों बच्चों के बीच का विश्वयुद्ध इतना बढ़ गया कि माता जी को हस्तक्षेप करना ही पड़ा। छोटे मियां ज़ोर-ज़ोर से रो रहे थे, मम्मी पूछ रही थी झगड़े की शुरूआत किसने की। थोड़ी देर के लिए ख़ामोशी आई और फिर हंगामा चालू। दीदी के गाल में कुछ काला है। दीदी को लंबा करो, दीदी को.....
{चित्र गूगल से साभार}