30 October 2008

"खाली वक़्त हो तभी पढ़ें"

खाली दिमाग़ शैतान का घर होता है और शैतान का घर तो उसका होता ही है। आजकल खाली बैठे-बैठे दिमाग़ भी खाली ही रहता है। खालीपन पर ही ख्याल भी आए। मेरी एक महीने की छुट्टी इतनी सता रही हैं कि तारीखें पता नहीं रहती और दिन याद करने के लिए कोई मौका याद करना पड़ता है। जो बेरोज़गार हैं या जिनकी नौकरी चली गई है उनकी तकलीफ का तो अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता। इन दिनों एक और सज्जन से मुलाक़ात होती रही जो बीमारी की वजह से नौकरी मुक्त हैं हालांकि ज़िंदगी में वो काफी व्यस्त हैं और एक दोस्त का ख्याल आया जिसकी नौकरी एक दुर्घटनावश चली गई, उसने दीपावली पर मुझे शुभकामनाएं भेजी। सारे खाली ख्यालों की मैंने निम्न पंक्तियों में खाल उधेड़ दी।
अब चेतावनी- खाली वक़्त हो तभी पढ़ें।


मेरे लिए
कोई सोम-मंगल-बुध नहीं होता
मेरे लिए
महीने की पहली तारीख हो
या आखिरी
क्यों फर्क नहीं पड़ता
मेरी रात कई टुकड़ों में होती है
दोपहर-शाम
नींद जब भी आ जाती है
मेरे लिए
सपने, दुख देते हैं
ख्वाहिशें, मुश्किलें
घर, काटता है
सड़कें,भटकाती हैं
दोस्त,सवाल पूछते हैं
मां, मायूस होती है
मैं शांत रहता हूं भरसक
कम से कम
कोशिश तो करता हूं पूरी

21 October 2008

"फोर लिक्विड स्टेजेस ऑफ लाइफ"

ये तस्वीर मुझे ई-पते पर एक दोस्त ने भेजी। मज़ेदार और सच्ची है, इसलिए आप भी देखें।

17 October 2008

लो मैं आ गई

जैसा कि सैनी साहब(धीरेश सैनी) बता ही चुके हैं कि मैं होटलनुमा अस्पताल से लौटी हूं। कुल जमा एक हफ्ता मैं अस्पताल में रही। जिसमें से दो दिन तो बेहोशी भरी नींद की वजह से मिस हो गए। बाकी अस्पताल के एक बंद कमरे में मुझे कई तरह के एहसास हुए।
कमरे की खिड़की से पर्दा हटाकर सड़क पर भागती गाड़ियों को देखकर ज़िंदगी का एहसास होता था। धूप-पसीना-तेज़ हॉर्न-ट्रैफिक की झल्लाहट सड़क पर चलते हुए ऐसा ही तो लगता है लेकिन अस्पताल के कमरे से ये सबकुछ सोचकर अच्छा लगता है। ज़िंदगी है तभी तो धूप है, पसीना है, भीड़ है, भागमभाग है। जिससे पीछा छुड़ाने के लिए हम हमेशा कुछ न कुछ योजनाएं बनाते रहते हैं, हम नहीं मैं, पर अस्पताल के एक कमरे में दो दिन बिताने के बाद इन सारी चीजों में जल्दी से जल्दी वापस लौटने के लिए दिल मचल रहा था।

एक और ख्याल मुझे आया। अस्पताल के एक कमरे में छे दिन बिताना इतना मुश्किल लग रहा था, जिन्हें उम्र क़ैद जैसी सज़ा मिली होती है वो कैसे रहते होंगे जेल में। मुझे तो मालूम था मैं यहां कुछ दिनों की मेहमान हूं पर जिन्हें पता है कि सारी ज़िंदगी जेल की बंद चारदीवारी के बीच गुजरनी है, उनका अपराध, उनकी सज़ा। मुझे डॉमनिक लॉपियर की एक हज़ार सूरज किताब के कैराइल चैसमैन की याद हो आई। जिसे मृत्युदंड मिला होता है और जेल में वो ज़िंदगीभर मृत्युदंड की सज़ा को माफ करने के लिए लड़ता है, कई बार उसकी सज़ा टलती है, आखिरी बार भी, लेकिन तब कुछ सेकेंड के अंतराल का फासला बड़ा हो जाता है, उसे इलेक्ट्रिक चेयर पर मौत की नींद सुला दिया जाता है।

अस्पताल से जुड़ा एक मज़ेदार अनुभव भी है। आगंतुकों का मेरे कमरे तक आना। दरअसल अस्पताल में मिलने के लिए समय की पाबंदी थी। पर मिलने आनेवालों को समय का पता नहीं था और था भी तो तोड़ने का जुगाड़ तो निकाला ही जा सकता था। विजिटर टाइम के अलावा कमरे में सिर्फ एक अटेंडेंट ही रह सकता था। विजिटर कभी भी विजिटर टाइम पर नहीं आए। जुगाड़ भिड़ाने के लिए सिक्योरिटी गार्ड से काफी जोड़तोड़ करनी पड़ती। कुछ फैमिली टाइप लोगों को तो सिक्योरिटी ने अंदर आने भी दिया, लेकिन जिनकी शक्ल उन्हें फैमिली टाइप नहीं बता रही थी, या जो अकेले आए, उन्हें बिना मेरा हालचाल जाने बगैर लौटने का महान सुख हासिल हुआ। सिक्योरिटी गार्ड को पटा कर अंदर घुस आने में मेरी बहन जी ने महारत हासिल कर ली थी और उसी की कृपा से कुछ आगंतुक मेरा हालचाल पा लेने में और मुझे जल्दी से अच्छा हो जाने का आशीर्वाद देने में क़ामयाब भी हुए।

अब मुझे लग रहा है कि मैं कीबोर्ड पर और ज्यादा खिटखिट करती रही तो मुझे अस्पताल वापस न जाना पड़ जाए। वैसे भी बहुत लंबा टीप लिया है। तो बाय-बाय।



13 October 2008

औरतों की कवितायें (1)

`औरतों की कवितायें` शीर्षक से शुभा की कई कवितायेँ भारत ज्ञान विज्ञान समिति ने छापीं थीं. इन कविताओं का पाठ महिलाओं को संगठित करने के आंदोलनों में बहुत बार हुआ है और अक्षर सैनिकों और नवसाक्षरों ने भी इनका बार-बार उपयोग किया है. इस सीरीज़ की कवितायेँ एक-एक कर आप भी पढ़ पाएंगे. बकौल कवयित्री `ये कवितायेँ औरतों के दुखों, उनकी मेहनत और उनके इंसानियत के बारे में हैं. उनकी मेहनत और दुखों को अभी बहुत कम पहचाना जाता है.`
औरतें
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औरतें मिट्टी के खिलौने बनाती हैं
मिट्टी के चूल्हे
और झाँपी बनाती हैं

औरतें मिट्टी से घर लीपती हैं
मिट्टी के रंग के कपडे पहनती हैं
और मिट्टी की तरह गहन होती हैं

औरतें इच्छाएं पैदा करती हैं और
ज़मीन में गाड़ देती हैं

औरतों की इच्छाएं
बहुत दिनों में फलती हैं

10 October 2008

एक निवेदन

वर्षा मेरी दोस्त, मेरा मतलब कुछ टेढ़े किस्म की दोस्त फिलहाल अस्पताल नाम के एक होटल में हैं। उसका आज सुबह कामयाब ओपरेशन हो चुका है। उसे ब्लॉग की दुनिया में लौटने में कुछ वक्त लगेगा। उसके पति और हम दोनों के कोमन दोस्त राजेश डोबरियाल यानि सोत्डू मियां की साजिश के बावजूद कुछ दिन इस ब्लॉग पर मैं वर्षा की दिलचस्पी का ध्यान रखते हुए कुछ अच्छी रचनाएँ खासकर स्त्री विमर्श से जुड़ी चीजें पोस्ट करता रहूँगा। पहली पोस्ट कल डालूँगा।
-धीरेश

01 October 2008

बम-शम तो अब फटते रहते हैं

अमां यार जबसे हम तुम्हारे फोन का इंतज़ार कर रिये हैं। चलना है तो बताइये।
अरे वो हम टीवी देखने बैठे थे, तभी ख़बर आ गई की दिल्ली में फिर बम फूट रहे हैं, बस वही देखने लग गए।

अजी छोड़िये। ये बम-वम फूटे तो फूटे। लड़के के एडमिशन के लिए यूनिवर्सिटी के एक बाबू जी से बात करनी है। आप तो जानते ही हैं बातचीत में हम उतने चपल हैं नहीं। इसीलिए आपको बार-बार पूछ रहे हैं। तो क्या कहते हैं आप चलेंगे क्या।

हां चलते हैं, दरअसल वही ख़बरिया कि कोई तो कह रहा है कि 14-15 लोग मर गए, कोई चैनल कह रहा है कि 24-25।
अरे अब आप इन चैनलों के चक्कर में न पड़ें और न इन धमाकों के। जितना इनसे जुड़ेंगे उतना ही ये सतावेंगे। अभी 14 कह रहे हैं दस मिनट बाद 34 भी कह सकते हैं और फिर खुद ही उसमें से दस घटा के 24 पर ले आएंगे, ये सब गोलमोल करते रहते हैं और धमाकों का क्या है, आज यहां बम फूटा है कल वहां फूटेगा। आप बस तैयार हो जाइये हम आ रहे हैं।

हां बस थोड़ी देर में चलते हैं ये ख़बर देख लें ज़रा।
अरे अब आप भी। पहले साल दो साल में धमाके होते थे तो ज़रा हम भी देख लेते थे, अब तो रोज़-रोज़ बम फोड़े जा रहे हैं, अब किसके पास टाइम है सारा वक़्त टीवी से चिपके रहने का। या फिर ये सोचने का कि कहीं हम मारे जाते तो। जब मरेंगे तब मरेंगे।
हां अब देखिये बम एक जगह फूट रहा है अफवाहें सौ जगह आ रही हैं।
तभी तो कह रिये हैं, बम-शम फटना तो अब रोज की बात हो गई है।

हां चलिए हम निकलते हैं, आप बस हमारी वाली चाय तैयार रखिएगा।
ये हुई न बात।