28 March 2009

कल आंधी आयी थी

आंधी की ध्वनि कितनी गहरी होती है। सिर्फ सुनकर मन डर जाता है, जैसे प्रकृति नाराज़ हो रही हो या फिर रोमांच भरा कोई खेल चल रहा हो हवाओं का, हवा की तीव्रता, जिसमें सब कुछ उड़ा देने का आवेग हो, वृक्ष जैसे अपने पत्तों की सरसराहट से हवा को संदेश देते हों, कहीं कुछ टूटने-फूटने की आवाज़, जम चुकी धूल को उड़ाकर आंधी जितनी तेज़ी से आती है, उसी तेज़ी से लौट जाती है, अगले दिन धूल साफ करते वक़्त फिर याद आता है कल आंधी आयी थी न।

आह!, मीठा सा स्वाद, आम का, इस मौसम की इस आंधी में आम भी तो टूटते हैं, ये स्वाद, ये रोमांच, हवा की ये बेलगाम दौड़ इतना सबकुछ महसूस करने का वक़्त कहां चला गया?


कल आंधी आयी थी, छुट्टी का दिन था, इसीलिए ये सब देखने-सुनने-अनुभव करने का मौका मिला। सोचने का मौका मिला। किचन के एग्ज़ाज्ट फैन के पंख तेज़ी से घूमने लगे थे और तभी आंधी की आवाज़ कहूं या ध्वनि सुनायी दी। अच्छा लगा था।

मैंने अपने कमरे की छत पर आर्टिफिशियल चांद-सितारे चिपका रखे हैं। रात में उनकी चमक देखकर लगता है सचमुच के तारे दिखते तो कितना अच्छा होता। यहां न छत है, न वक़्त।

हालांकि वक़्त का इतना रोना अच्छा नहीं, नींद के घंटे कम कर पाती, तो वक़्त आ जाता। पर क्या करुं, ये भी नहीं होता।

कल डिस्कवरी पर एक प्रोग्राम भी आ रहा था, जब आंधी आ रही थी उसी वक़्त।
इंसान की बनायी गई मशीनें, इंसान से ज्यादा ताकतवर हो जाएंगी। मशीनों से लड़ने के लिए इंसान के दिमाग़ में मशीनों को फिट कर, उसे ज्यादा ताकतवर बनाए जाने पर प्रोग्राम था। साइबर्ग...यानी आधा इंसान, आधी मशीन। सोचा, अच्छा है हम इस वक़्त में जी रहे हैं आनेवाला वक़्त तो और खतरनाक होगा। यहां आंधी, चांद-तारों की बात तो की जा रही है, आनेवाले कल में सिर्फ मशीनें ही होंगी। यहां “आई रोबोट” फिल्म देखने का सुझाव भी देती हूं।

यहां स्कूल के कोर्स में पढ़ी गई एक अंग्रेजी कविता भी याद आ रही है, लूसी ग्रे की। जिसमें वो प्रकृति की बेटी होती है शायद। कविता पूरी याद नहीं, अगर मिल जाती तो यहां जरूर चिपका देती।

8 comments:

Unknown said...

वर्षा जी , चित्र अच्छा बना दिया शब्दजाल से । पर हमारी तो इस आंधी में धूल ही धूल जिसे भूलना ही अच्छा है ।

हरकीरत ' हीर' said...

अच्छा लिखा .....!!

राज भाटिय़ा said...

वर्षा जी ,बहुत सुंदर लिखा.
धन्यवाद

Ashok Pandey said...

सही बात है। मानव संस्‍कृति के इतिहास में समय के साथ मशीनीकरण बढ़ता गया है और लोग प्रकृति से दूर होते गए हैं। आप ठीक कह रही हैं, भविष्‍य में यह स्थिति खतरनाक रूप लेनेवाली है।

रवीन्द्र दास said...

badi hi sanjidagi se likha hua bayan.

Ek ziddi dhun said...

Varsha Filhal aam nahi bator paogi kyonki abhi aam ke pado.n par shirf bor aaya hai. thoda intjaar. filhal to wheat ki fasal laghag tayyar hai aur andhi mein kisaan ka dil baith jaata hai

अनिल कान्त said...

shabdon se khelna koi aapse seekhe

rajesh singh kshatri said...

बहुत सुंदर ....