09 March 2010

देखने का सुख

मैंने कहीं पढ़ा था। अगर आपसे एक दिन के लिये आँखों की रोशनी छीन ली जाये तो पता चलेगा देखना कितना सुखद होता है, इसलिये हर चीज को इस तरह देखो जैसे आखिरी बार देख रहे हो, बोलो जैसे आखिरी बार बोल रहे हो, सुनो जैसे आखिरी बार सुन रहे हो, तब हम देखने-बोलने-सुनने और ऐसी तमाम क्रियाओं की अहमियत समझ पाएंगे।

मेरी बेटी जो देखना-बोलना-सुनना सीख रही है(अभी वो साढ़े तीन महीने की है) उससे मुझे ये बात याद आई। वो सीलिंग पर पर उखड़े सीमेंट की पपड़ी देख किलकारी मारती है, लैंप को देख खिलखिलाती है, दीवार पर टंगे कैलेंडर को देख उसके चेहरे पर सहज मुस्कान आ जाती है। दरवाजे,पर्दे,खिड़कियां,पौधे, टोपी, जंग खाती घंटी,गेंदे के फूल की सूख चुकी लड़ी और ऐसी तमाम चीजें देख उसे बहुत मज़ा आता है। उसे ऐसा करते देख मुझे बहुत मज़ा आता है। उखड़े सीमेंट को देख उसे क्या समझ आता होगा, क्या महसूस करती होगी, जो वो मेरी गोद में उछल पड़ती है और गेंदे के मुर्झाये फूल उसके चेहरे पर मुस्कान बिखेर देते हैं। वो देखने का सुख लेती है, मज़ा लेती है, स्वाद लेती है।

दरअसल मैं खुद बोर बहुत होती हूं, कई चीजों को देख कहती हूं क्या बोरिंग है, या मैं बोर हो रही हूं जैसी बातें मेरे दिमाग में अक्सर रहती हैं, मैं खुद भी एक कमाल की बोरिंग इंसान हूं, पर जब वो सीलिंग में बने छेद को देख किलकारी मारती है, उसे देखने का मज़ा लेती है, तो मुझे लगता है छोटी सी बच्ची मुझसे ज्यादा समझदार है।