24 May 2010

सब रिश्ते पीछे, टीवी से रिश्ता पहले

मेरी मां टीवी देखती थी दोपहर में, जब हम स्कूल में होते, पापा ऑफिस और वो अकेली, हालांकि शाम मोहल्ले की औरतों से गुलजार हो जाती।

मेरे सास-ससुर टीवी देखते हैं। एक ही सीरीयल बार-बार, वो एकता कपूर वाले। उनकी सुबह, दोपहर, शाम, रात सब टीवी के साथ होती है।

मेरे भतीजी-भतीजा पैदा होते ही टीवी के कीड़े हो गये हैं, वो टीवी के सामने से टलते नहीं, पड़ोस में खेलने जाने का दस्तूर भी खत्म हो गया है।

मेरे पतिदेव भी टीवी देखने के शौकीन हैं, पर फिल्में। उनके लिये फिल्में देखना किताब पढ़ने जैसा है। जब वो टीवी के सामने होते हैं तो घर में कर्फ्यू का सा माहौल हो जाता है(हालांकि मैं धारा 144 का खुलकर उल्लंघन करती हूं)।

मेरी 6 महीने की बच्ची टीवी के रंगों को देखकर ठहर जाती है। उसकी आंखें भी टीवी पर टंग जाती हैं।

ऐसा लगने लगा है टेलीविज़न दुनिया की सबसे कीमती ईजाद है।
अकेली औरत बोझिल दोपहर को काटने के लिये टीवी देखती है। बड़े बुजुर्गों का सहारा है टीवी, काटे नहीं कटते वक़्त को जो हौले से पार लगा देता है। मोहल्ले खत्म हो गये, गली-गली खेलतेबच्चों के झुंड खत्म हो गये। तो होमवर्क के बाद टीवी पर कार्टून देखते हैं बच्चे। कहीं घूमने जाने के बजाय भी लोग घर पर रहकर टीवी देखना पसंद करते हैं।

यही नहीं शादी-ब्याह और किसी के इंतकाल के मौके पर भी लोग टीवी न देख पायें तो अधूरा-अधूरा सा महसूस करते हैं। रिमोट को हाथ में थाम ही लेते हैं।

इसकी लाख बुराई की जाये, पर ये तो मानना ही पड़ेगा ये हमारी लाइफ लाइन बन गया है। टीवी की स्क्रीन में भागती तस्वीरों के बीच हमारी दुनिया सिमट गई है। सिर्फ मनोरंजन ही नहीं उससे भी एक कदम आगे टीवी की भूमिका हमारी ज़िंदगी में बन गई है।
यहां एक और बात लिखने का जी चाह रहा है, सुबह-सुबह ऑफिस के बाहर ठेले पर अपनी एक सहयोगी के साथ चाय की चुस्कियां लगा रही थी। ऑफिस कैंपस में आम का पेड़ है, उसे देखकर ख्याल आया, बचपन में हम भी तो आम के पेड़ पर चढ़े चुके हैं। उसका अपना ही मजा है। हमारे बच्चों को ये सुख नहीं मिलेगा। हां वो स्केटिंग कर रहे हैं,क्रिकेट-हॉकी खेल रहे हैं। लेकिन वो पेड़ों पर चढ़नेवाला जो अनुभव होता है, वो अतुलनीय है।
ख़ैर....
आखिर में मैं यही कहना चाहूंगी...दोस्त, टीवी का रिश्ता भी बड़ा गहरा होता है। टीवी को लेकर मां-बाप से लड़ाई हो जाती है। मियां-बीवी के बीच सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने का सा माहौल हो जाता है।

03 May 2010

ये रोना रोने का बहुत मन कर रहा है। हम औरतों के अधिकारों को लेकर ख़बरें बनाते हैं। कभी कोई ऐसी ख़बर आ जाती है कि स्टोरी को इमोशनल टच देना होता है तो स्क्रिप्ट हमारी तरफ बढ़ा दी जाती है। औरतों की ख़बर बनाने के लिये ज्यादातर औरतों से ही उम्मीद की जाती है। पर दरअसल मैं ये बताना चाहती हूं कि दूसरी औरतों के अधिकारों को छिनने, उन पर अत्याचार की ख़बर बनानेवाले हम, अपने अधिकारों के लिये कुछ नहीं कर पाते, अपना रोना भी नहीं रो सकते। गुस्सा आता
है। चेहरे की ख़ामोश, अन्यमनस्क और उदास सी भाव-भंगिमाओं के अंदर बहुत गुस्सा सुलगता है। किस्सा क्या है वो भी बताती हूं। सालों से हम अपनी सैलरी बढ़ने-कटने,प्रमोशन पर उम्मीदें गड़ाये बैठे रहते हैं। मैं भी। हमारे एचआर डिपार्टमेंट ने
सारे स्टाफ की प्रोफाइल मांगी। कुर्सी की शोभा बढानेवाले वरिष्ठों ने बनाई। मैं और मेरी एक और कलीग मेटरनिटी लीव पर थे..हमारा प्रोफाइल मेटरनिटी लीव गया। इतने सालों से हम क्या कर रहे हैं इसका कोई मतलब नहीं। हम प्रेगनेंसी के दौरान नौ महीने तक लगातार ऑफिस आते रहे, लगातार काम करते रहे, हमारी सारी मेहनत पर एक जनाब ने मेटरनिटी लीव का प्रोफाइल डालकर पानी फेर दिया। मेरे साथ काम करनेवाली कई लड़कियों के साथ ऐसा हो चुका है। जब वो मेटरनिटी लीव पर रहीं तो उनके पैसे नहीं बढ़ाये, प्रमोशन नहीं किया, निर्लज्जता ये कि उन्हें बताकर ऐसा किया गया। शर्म आती है खुद पर...बेशर्म लोगों पर तो शर्म की नहीं जा सकती न।
सिर्फ यही नहीं, लड़कियों को ऑफिस में इतनी जगहों पर लिंगभेद का सामना करना पड़ता है जिन्हें लिखना खुद को और ज्यादा शर्मसार करने जैसा लगता है।