03 January 2011











तुम उनकी साज़िशों को खत्म कर दोगे
तुम प्रवंचना की उनकी कुटिल
चालों का अंत कर दोगे
हत्याएं करने-करवाने की
ठंडी फांसियां देने-दिलवाने की
चुपचाप ज़हर घोलने-घुलवाने की
कारागार की नाटकीय कोठरियों में
मानवता को गलाने-गलवाने की
यानी, उनकी एक-एक साज़िश को
तुम खत्म कर दोगे
हमेशा-हमेशा के लिए
मैं तुम्हारा ही पता लगाने के लिए
घूमता फिर रहा हूं
सारा-सारा दिन, सारी-सारी रात
आगामी युगों के मुक्ति सैनिक
कहां हो तुम?
{विनायक सेन, फिर शंकर गुहा नियोगी के बारे में जानकारियां जुटाते-जुटाते बाबा नागार्जुन की कविता पढ़ने को मिल गई... }

5 comments:

Mithilesh dubey said...

accha laga padhna , abhar aapka

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

वर्षा जी, इस महान रचना को हम तक पहुंचाने का आभार।

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डा0 अरविंद मिश्र: एक व्‍यक्ति, एक आंदोलन।
एक फोन और सारी समस्‍याओं से मुक्ति।

दिगम्बर नासवा said...

बाबा की एक कविता कल ही कहीं सुनी ... औफ .. क्या लिखा है ...

shikha varshney said...

इस रचना को हम तक पहुँचाने का आभार.

कविता रावत said...

bahut sundar prastuti ...aapka aabhar