31 January 2012

लेकिन आग जलनी चाहिए










हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए

(मौजूदा हालात में खुद को उम्मीद देने के लिए, थोड़ी आग देने के लिए....दुष्यंत कुमार ये कविता बातों-बातों में आ ध्यान आ गई, चित्र गूगल से साभार)