16 October 2013

नया ज़माना-पुराना ज़माना


पुराना ज़माना धकियाता है
नए ज़माने को
नया इतराता है, चिढ़ाता है
पुराने ज़माने को
हमारे ज़माने में तो 
ये था-वो था
नया ज़माना ग़ौर से सुनता है
पुराने ज़माने को
नया ज़माना निकलता है जब
चमचमाती सड़क, चमचमाती गाड़ी में
पुराना ज़माना आहें भरता है
पुराना ज़माना चल लेता था कई कोस
यूं ही
नया ज़माना परचून की दुकान पर भी
गड्डी में जाता है
सुबह पहन के रिबॉक के जूते
टहलता है नया ज़माना
डायबटीज़, ब्लड प्रेशर से परेशान
नया ज़माना ट्रेड मिल पर पसीना निकालता है
पुराना ज़माना अंगोछे में पोंछता चलता था पसीना-पसीना
जब मिल बैठते हैं दोनों साथ
चौंकते हैं बात-बात पर
नया ज़माना-पुराना ज़माना

11 October 2013

कैसे जियें- किसी ने ख़त में मुझसे पूछा


विस्वावा शिम्बोर्स्का की कविताएं ब्लॉग्स पर और फिर जलसा में पढ़ी। वो मुझे बहुत  अच्छी लगती
हैं। उनसे मुलाकात उनकी कविताओं में ही हुई है। उनके बारे में अंतर्जाल पर और सामाग्री ढूढ़ूंगी। फिलहाल उनकी एक बहुत ज़रूरी कविता यहां पर। 



सदी के मोड़ पर

दूसरी सदियों से बेहतर होना था हमारी बीसवीं सदी को,
यह साबित करने का वक़्त भी अब इसके पास नहीं है।
कुछ ही साल की यह मेहमान है,
चाल लड़खड़ाहट भरी
सांस फूलती हुई।

जिसको बिलकुल नहीं होना था इस सदी में
उसकी बहुत ज्यादती रही
और जो होना था
रहा नदारद।

बहार आने को थी और
आने वाली थीं ख़ुशियां बाक़ी चीज़ों के साथ।

डर को छूमंतर हो जाना था परबतों और वादियों से।
सच को झूठ से आगे निकल जाना था।

चंद बदनसीबियां
हरगिज़ न दोहरायी जानी थीं--
जैसे भूख और जंग।

चंद चीज़ों को इज़्ज़त मिलनी थी--
बेसहारों को बेचारगी को
आस्था और भरोसे वग़ैरा को।

जो इस दुनिया का लुत्फ़ लेना चाहता है
असंभव को बुलावा दे रहा है।

हिमाकत में लुत्फ़ नहीं
न अक़्लमंदी में ख़ुशी।

आशा वह अल्हड़ छोकरी अब न रही अल्हड़
न छोकरी न आशा
इत्यादि। आह।

ईश्वर को अंतत: मनुष्य पर भरोसा होना था
एक अच्छे और ताक़तवर मनुष्य पर,
पर दो मनुष्य पाए गए अलग-अलग खड़े
एक अच्छा और एक ताक़तवर।

कैसे िजियें- किसी ने ख़त में मुझसे पूछा
जिससे मैं पूछने पूछने को थी बिलकुल
यही सवाल।

तो हस्बे-मामूल
यही ज़ाहिर हुआ कि दुनिया में
भोले-भाले सवालों से ज़्यादा ज़रूरी
नहीं कोई भी सवाल।

(चित्र गूगल से साभार)

06 October 2013

चेंद्रू मंडावी को हम शहरियों की श्रद्धांजलि




बस्तर के अबूझमाड़ के मुरिया आदिवासी चेंद्रू मंडावी के बारे में जानना, वो भी उनके चले जाने के बाद, ये गर्व और दुख दोनों से भरा है। और आंखें खोलनेवाला भी। सचमुच ये हम सब लोग किन चमचमाती चीजों के पीछे भाग रहे हैं। भाग भी रहे हैं और कहीं पहुंच भी नहीं रहे। सब बीमार है। मोगली, जंगल ब्वॉय और भरत जैसे नामों से जाने गए चेंद्रू मंडावी। इन पर 75 मिनट की स्वीडिश फिल्म बनी, एन डी जंगल सागा, और उसका अंग्रेजी संस्कर- द फ्लूट एंड द एरो। शेर के साथ खेलनेवाला ये लड़का अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक जाना गया। शेर से खेलनेवाले इस साहसी बच्चे से विदेशों से लोग मिलने आते, फोटो खिंचवाते। चेंद्रू मंडावी ने मुफलिसी में पूरी ज़िंदगी गुजार दी। उनकी मौत पर भी हमारे मीडिया में कोई सुगबुगाहट नहीं। अपराधी(जो सिद्ध होने में सालों-साल लग जाते हैं) न्यूज चैनलों पर छाए रहते हैं। उन पर बड़े-बड़े प्रोग्राम बन रहे हैं। ये भी जानना सुखद हैरतभरा था कि  फेसबुक पर चेंद्र की बीमारी की खबर पाकर एक जापानी युवती ने मदद के लिए डेढ़ लाख भेजे, जबकि बस्तर के प्रशासन से चेंद्रू मदद मांगते रहे, मगर नहीं मिली। आदिवासी चेंद्र मंडावी को हम शहरियों की श्रद्धांजलि।

04 October 2013

शिक्षा और बालविवाह की जंग

ये दोनों ही शानदार लड़कियां हैं। लिंकिन सुबुद्धि और वो छात्रा जो अब भी पढ़ना चाहती है।

नोएडा में आठवीं में पढ़नेवाली लिंकिन की छात्रा पर उसकी मां लगातार शादी के लिए दबाव बना रही थी। पिता दबाव नहीं बना रहे थे लेकिन मौन जरूर थे। हालांकि पिता ने ही बच्ची का स्कूल में दाखिला करवाया था। दो साल तक छात्रा परिवार में शादी न करने के लिए संघर्ष करती रही। उसकी मां-जब तब उसे मारती-पीटती, गालीगलौज करती। स्थिति बर्दाश्त से बाहर थी। जिस लड़के से उसकी मां शादी कराना चाहती थी वो उसकी मौसी का बेटा था। लड़के ने लड़की के साथ कई बार दुर्व्यहवार किया, लड़की के मुताबिक बलात्कार तक करने की कोशिश की।
लिंकिन की उम्र कोई 28-29 साल होगी। वो एक संस्था से जुड़ी हैं, उसी के तहत झुग्गी झोपड़ी के बच्चों को पढ़ाती हैं। यहीं उन्हें अपनी छात्रा पर गुजर रही इस स्थिति का पता चला। छात्रा बहुत होनहार है। उसमें पढ़ने का जज़्बा है। पढ़ाई जारी रखने के लिए वो परिवार की कितनी लानतें सह रही थी, मगर स्कूल नहीं छोड़ना चाहती थी। छात्रा पर शादी का दबाव बढ़ता जा रहा था। इस बालविवाह के खिलाफ़ लिंकिन अपनी छात्रा के साथ खड़ी हुईं। लड़की के मां-बाप को कई बार समझाया।
उस रोज़ भी जब छात्रा स्कूल नहीं आयी, लिंकिन को पता चला कि शादी कराने के लिए उसपर बहुत दबाव बनाया जा रहा है, वो छात्रा के घर पहुंची। उसकी मां से बात करने की कोशिश की। लेकिन छात्रा की मां ने उस लड़के के साथ मिलकर, जिससे वो अपनी बेटी की शादी करना चाहती थी, लिंकिन पर हमला बोल दिया। उनके सर पर बर्बरता से कई वार किए। लिंकिन ख़ून से लथपथ वहीं गिर गई। सर पर गंभीर चोटें आईं थीं। जिस झुग्गी में छात्रा का परिवार रहता था वहां के लोगों को भी यक़ीन नहीं हुआ। हमला करने के बाद लड़का फ़रार हो गया है जबकि झुग्गीवालों ने उसकी मां को पकड़कर पुलिस को सौंप दिया।
और लिंकिन अस्पताल में ज़िंदगी और मौत के बीच संघर्ष कर रही थी। लिंकिन के तमाम साथी इकट्ठा हो गए।
हर कोई उसके ठीक होने की प्रार्थना कर रहा था।  क्योंकि चोटें सिर में लगी थीं इसलिए डर ज्यादा था। लेकिन लिंकिन एक हिम्मतवर जुझारू महिला हैं।अस्पताल में भी उन्होंने ये हिम्मत दिखायी और एक हफ्ते में उनकी तबियत में सुधार आया।
लिंकिन इसलिए उदाहरण हैं क्योंकि उन्होंने बालविवाह के खिलाफ़ संघर्ष किया। अपनी आवाज़ बुलंद की। हममें से बहुत से लोगों के सामने कई बार ऐसे हालात आते हैं, हम सड़क पर किसी को पिटता देखते हैं, कुछ कर नहीं पाते। हम अन्याय होता देखते हैं, जुल्म होते देखते हैं लेकिन उसके खिलाफ़ खड़े होने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। लिंकिन ने ये हिम्मत जुटायी। अस्पताल से लिंकिन के माता-पिता उन्हें वापस भुवनेश्वर ले गए। उड़ीसा सरकार ने भी लिंकिन की हौसला-अफज़ाई की। लिंकिन को बहादुरी पुरस्कार देने का फैसला लिया।
निश्चय ही लिंकिन का ये संघर्ष जारी रहेगा।
चिंता उस छात्रा की भी है, जो इस समय बाल सुरक्षा गृह में है। उसकी मां अब जेल में है और पिता ने साथ ले जाने से इंकार कर दिया है। बाल सुरक्षा गृहों की स्थितियां बहुत अच्छी नहीं होती, ये हम सब जानते हैं। पढ़ाई के लिए उस छात्रा ने इतना जोखिम मोल लिया। जिसकी होशियारी की तारीफ उसकी शिक्षिकाएं कर रही थीं। उसका पढ़ना इस सब में सबसे ज्यादा जरूरी हो जाता है।

(चित्र गूगल से साभार)