15 January 2014

बीड़ी जलइले



शादीवाले घरों में अक्सर कमरे का बंटवारा कर दिया जाता है। पुरुषों के कमरे अलग। औरतों के कमरे अलग। वो औरतों का कमरा था। बिहार के लोग थे ज्यादातर। शादी उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में थी। कमरे की दीवारों से लगे जमीन पर बिछे गद्दे। सब पर चादर-तकिए वगैरा लगे थे। उन पर टेक लगाए ज्यादातर बुढ़ियाएं। सब की सब बीड़ी सुलगा रही थी। कमरे में तंबाकू का धुआं, बीड़ी की गंध भरी हुई थी। माचिस के लिए एक आवाज़ उठती, उसी में दूसरा सुर लगता, फिर तीसरा, साथ में हंसी-ठठ्ठा। हर वक्त माचिस की खोज मची रहती। माचिसवा कहां गइल, माचिसवा ले आव रे...कहां मर गइल संजइया, मचिसवा काहे ना किन लइते, जा तनिक भाग के जा दुकनइया तइ त....। बुढ़ियाएं तुनकतीं और रसोई में खाना पका रही उनकी बहुएं उनसे ज्यादा। चूल्हा जलाने को माचिस नहीं बचता। लाइटर शायद वहां नहीं रहा होगा। बहुत ढूंढ़ढांढ़ कर कोई एक तीलीवाली माचिस की डिबिया मिलती तो सब उसी में बीड़ी सुलगाने को तैयार। लगता था पास की परचून की दुकान से सारी माचिस खरीद ली गई फिर भी कम पड़ गई होगी। हर वक्त कोई माचिस खरीदने दुकान की ओर गया होता। हर वक्त माचिस की खोज मची रहती।

यहां ये तो नहीं समझा जाएगा कि उन्हें बुढ़ियाएं कह सम्मान नहीं दिया जा रहा। दरअसल ससम्मान ये बिलकुल सटीक शब्द है कमरे के उस दृश्य के साथ उन सब के लिए। ज्यादातर की एकदम दुबली-पतली काया। सूती साड़ियों में लिपटी हुई। सब की लंबाई भी बहुत कम लग रही थी। चेहरा झुर्रियों से लिपटा हुआ, आंखें अंदर धंसी हुईं। सब की सब सत्तर पार की तो तय थी हीं, सौ की उम्र के नजदीक लग रही थीं।
फकाफक बीड़ी पीतीं जैसे हमारे यहां मेहमानों को चाय पूछी जाती है, वहां बीड़ी पूछी जा रही थी। जली-अधजली बीड़ियां जहां-तहां पड़ी थीं। सब बुढ़ियाएं लगातार बतियाए जा रही थीं। उनकी बातों का ज्यादातर हिस्सा समझ से बाहर था। लेकिन जो कुछ भी बोल रही थीं अच्छा लग रहा था। 


ये सबकुछ याद आया क्योंकि साल 2014 की रिपोर्ट बता रही है कि धूम्रपान के मामले में अमेरिका के बाद भारतीय महिलाएं दुनिया में दूसरे नंबर पर आ गई हैं। जबकि भारत में धूम्रपान करनेवाले पुरुषों की संख्या में उल्लेखनीय गिरावट दर्ज की गई। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 1980 से 2012 के बीच सिगरेट पीनेवाले पुरुषों की संख्या 33.8 फीसद से घटकर 23 फीसद रह गई है।

सिगरेट, बीड़ी, धूम्रपान, आधुनिकता-स्वतंत्रता साबित करने के हथियार माने जाते रहे। स्त्रियों के लिए स्वायत्तता हासिल करने का ज़रिया भी। हमारे यहां अब भी स्त्रियों को बात-बात पर खुद को साबित करना होता है। मजबूत स्थिति में रह रही स्त्रियों की स्थिति भी इससे अलग नहीं। अपनी आज़ादी अब भी साबित करनी होती है। शायद इसलिए हमारे देश में सिगरेट पीनेवाली महिलाओं की संख्या में इजाफा दर्ज किया जा रहा हो। इस बात पर लगातार सोचते हुए मैंने यही पाया।वैसे मिज़ाज के लिहाज से भी कुछ इसका इस्तेमाल करती हैं जैसे कि सामान्यतया पुरुष।

नब्बे के दशक के शुरुआती दौर में, शादीवाले उस घर में, वरवधू को आशीर्वाद देने जुटीं वो बुढियाएं बरबस ही याद हो आईं। बीड़ी की गंध जिनकी सांसों में बंसी थी और तंबाकू जिनके कलेजे को सुखा रहा होगा। उनमें से ज्यादातर अब हमारे बीच न हों शायद। चूने से पुते सफेद दीवारों पर टेक लगाए औंधी बैठी हुई सब बुढ़ियाएं एक साथ किसी बात पर खिलखिला उठीं। जोरदार ठहाका लगाया, उनके ठहाकों में उनकी सांस खिंचती चली गई। कुछ ठहाके खांसी में तब्दील हो गए। उनके सामने साल 2014 ये रिपोर्ट नहीं लिखी गई थी, अगर रखी भी गई होती तो दृश्य कुछ ऐसा ही होता।

वो फैशनपरस्ती, या अपनी आधुनिकता साबित करने के लिए पक्के तौर पर बीड़ी नहीं पीतीं थीं। 
हां ये सब लिखते-लिखते बीड़ी बनानेवाले मजदूरों का दर्द भी साल रहा है। शायद इसीलिए गीतकार गुलजार की लिखी पंक्तियां भी खूब भाती हैं...बीड़ी जलइले जिगर से पिया। बीड़ी-सिगरेट जिगर से जलते हैं, इनसे जिगर जलता है।




01 January 2014

साल की आखिरी रात





वो एक ख़ूबसूरत रात थी। साल 2002 की आखिरी रात। जो बस गुजरने को तैयार थी। जमा देनेवाली सर्दी फिज़ा को और ख़ूबसूरत बना रही थी। बोलो तो मुंह से भाप निकलता इसलिए बार-बार कुछ बोलने का जी चाहता। लेकिन बोलनेवाला कोई था ही नहीं। नई नौकरी, नया शहर, सारे अजनबी। एक लंबे ओवरकोट की जेब में हाथ डाले नोएडा की चौड़ी सड़क पर चल रही थी मैं।

रात कोई साढ़े नौ-दस बजे। लोग जश्न में व्यस्त थे। रास्ते में जगह-जगह लड़कों के झुंड थे। मस्ती से चहकते, यार-दोस्तों के साथ बतियाते हुए। बाज़ार में ख़ासी चहलपहल थी। मेरा दिल चाह रहा था यूं ही किसी एक कोने पर खड़ी हो जाऊं और बस सब कुछ देखूं, देखती रहूं, देरतक। देखूं कि लोग कैसे बातें कर रहे हैं। फूलवाले, मूंगफली वाले, जूस कॉर्नर, ग्रीटिंग्स कार्ड की दुकानें, गिफ्ट शॉप...।
दोस्तों के झुंड अपने छूटे शहर छूटे दोस्तों की याद दिला रहे थे। उनकी हंसी-ठहाकों में मेरी अदना सी चुप्पी चुपचाप घुसपैठ कर रही थी।

लखनऊ के अपने मोहल्ले से कोई पांच सौ किलोमीटर दूर नोएडा का एक तेज़तर्रार सेक्टर।  मैं अकेली रह रही थी और घरवालों से बाते करने के लिए पीसीओ बूथ तक आई थी। उस वक़्त मोबाइल क्रांति की शुरुआत हुई थी। मोबाइल हर जेब तक पहुंचने की कोशिश कर रहा था। मेरी जेब तक अभी नहीं आया था।

तो मैं वहीं किसी लैंप पोस्ट पर टिककर सबकुछ देखना चाहती थी। लेकिन ये मुनासिब न लगा। गुटबाज़ियां कर रहे लोग एक लड़की को बाजार में चुपचाप यूं ही बर्दाश्त नहीं कर पाते। उनकी उठती-गिरती निगाहें, फब्तियां..।

मेरा मन कुछ बेचैन हुआ। मैं रुकना तो चाहती थी मगर लौट रही थी। ये सोचते हुए कि हर किसी की दुनिया अलग होती है। दुनिया एक नहीं है, एक ही दुनिया में कई-कई दुनिया हैं। इस वक़्त एक लड़की की दुनिया किसी लड़के की दुनिया से कितनी अलग है। लड़के बाज़ार में चौकड़ी जमाए हुए हैं। उनके झुंड के बगल से गुजरती लड़की यूं ही बगैरबात सिकुड़ सी जाती है, सहम सी जाती है। मैं दड़बे जैसे कमरे में न लौटकर इस रात को जी भरकर देखना चाहती थी। इस सर्दी का लुत्फ उठाना चाहती थी। दूर पार्क में चलते फव्वारे की मचलती बूंदों को देखना चाहती थी। आसमान में अपनी टिमटिमाहट बिखेरते तारों को निहारना चाहती थी।

कमरे का ताला खोलते हुए मैंने सोचा एक दिन ये सब बदल जाएगा। जिस तेज़ी से तरक्की रफ्तार पकड़ रही है, हमारा परिवेश बदल रहा है।  लड़कियां आज़ाद होंगी। खड़ी होंगी कभी किसी बाज़ार में, अकेले, यूं ही टहलती हुई। किसी चाय की दुकान पर चाय पीती हुई। रात दस बजे हों या ग्यारह बजे भी।  सारा वक़्त हमारा होगा, ढलती शाम उन्हें घर में रहने की नसीहत नहीं दी जाएगी।

2002 की उस आखिरी रात को याद करते हुए 2014 की सुबह में सोचती हूं, क्या कुछ बदला। हमारी दुनिया बदली। क्या अब मैं किसी बाज़ार, किसी भीड़भाड़ वाली जगह पर कुछ देर यूं ही टहल सकती हूं और कोई अश्लील जुमला मेरी तरफ न उछले, कोई गंदी निगाह मुझ पर न उठे। अपने पूरे सम्मान के साथ एक खूबसूरत रात में मैं यूं ही चहलकदमी कर सकती हूं। अफसोस...।

हां कुछ बदला तो ये कि 2002 के दिसंबर की उस आखिरी रात की तरह 2013 दिसंबर की आखिरी रात मेरा दिल कहीं बाहर निकलने को बिलकुल न था। इतने सालों की समझ, अनुभव, हलचल और नौकरी की थकान में, साल की आखिरी रात मैं सिर्फ अपने घर में, सोफे पर, कंबल ढांपकर, औंधी पड़ी रहना चाहती थी।

(चित्र गूगल से साभार)