01 January 2014

साल की आखिरी रात





वो एक ख़ूबसूरत रात थी। साल 2002 की आखिरी रात। जो बस गुजरने को तैयार थी। जमा देनेवाली सर्दी फिज़ा को और ख़ूबसूरत बना रही थी। बोलो तो मुंह से भाप निकलता इसलिए बार-बार कुछ बोलने का जी चाहता। लेकिन बोलनेवाला कोई था ही नहीं। नई नौकरी, नया शहर, सारे अजनबी। एक लंबे ओवरकोट की जेब में हाथ डाले नोएडा की चौड़ी सड़क पर चल रही थी मैं।

रात कोई साढ़े नौ-दस बजे। लोग जश्न में व्यस्त थे। रास्ते में जगह-जगह लड़कों के झुंड थे। मस्ती से चहकते, यार-दोस्तों के साथ बतियाते हुए। बाज़ार में ख़ासी चहलपहल थी। मेरा दिल चाह रहा था यूं ही किसी एक कोने पर खड़ी हो जाऊं और बस सब कुछ देखूं, देखती रहूं, देरतक। देखूं कि लोग कैसे बातें कर रहे हैं। फूलवाले, मूंगफली वाले, जूस कॉर्नर, ग्रीटिंग्स कार्ड की दुकानें, गिफ्ट शॉप...।
दोस्तों के झुंड अपने छूटे शहर छूटे दोस्तों की याद दिला रहे थे। उनकी हंसी-ठहाकों में मेरी अदना सी चुप्पी चुपचाप घुसपैठ कर रही थी।

लखनऊ के अपने मोहल्ले से कोई पांच सौ किलोमीटर दूर नोएडा का एक तेज़तर्रार सेक्टर।  मैं अकेली रह रही थी और घरवालों से बाते करने के लिए पीसीओ बूथ तक आई थी। उस वक़्त मोबाइल क्रांति की शुरुआत हुई थी। मोबाइल हर जेब तक पहुंचने की कोशिश कर रहा था। मेरी जेब तक अभी नहीं आया था।

तो मैं वहीं किसी लैंप पोस्ट पर टिककर सबकुछ देखना चाहती थी। लेकिन ये मुनासिब न लगा। गुटबाज़ियां कर रहे लोग एक लड़की को बाजार में चुपचाप यूं ही बर्दाश्त नहीं कर पाते। उनकी उठती-गिरती निगाहें, फब्तियां..।

मेरा मन कुछ बेचैन हुआ। मैं रुकना तो चाहती थी मगर लौट रही थी। ये सोचते हुए कि हर किसी की दुनिया अलग होती है। दुनिया एक नहीं है, एक ही दुनिया में कई-कई दुनिया हैं। इस वक़्त एक लड़की की दुनिया किसी लड़के की दुनिया से कितनी अलग है। लड़के बाज़ार में चौकड़ी जमाए हुए हैं। उनके झुंड के बगल से गुजरती लड़की यूं ही बगैरबात सिकुड़ सी जाती है, सहम सी जाती है। मैं दड़बे जैसे कमरे में न लौटकर इस रात को जी भरकर देखना चाहती थी। इस सर्दी का लुत्फ उठाना चाहती थी। दूर पार्क में चलते फव्वारे की मचलती बूंदों को देखना चाहती थी। आसमान में अपनी टिमटिमाहट बिखेरते तारों को निहारना चाहती थी।

कमरे का ताला खोलते हुए मैंने सोचा एक दिन ये सब बदल जाएगा। जिस तेज़ी से तरक्की रफ्तार पकड़ रही है, हमारा परिवेश बदल रहा है।  लड़कियां आज़ाद होंगी। खड़ी होंगी कभी किसी बाज़ार में, अकेले, यूं ही टहलती हुई। किसी चाय की दुकान पर चाय पीती हुई। रात दस बजे हों या ग्यारह बजे भी।  सारा वक़्त हमारा होगा, ढलती शाम उन्हें घर में रहने की नसीहत नहीं दी जाएगी।

2002 की उस आखिरी रात को याद करते हुए 2014 की सुबह में सोचती हूं, क्या कुछ बदला। हमारी दुनिया बदली। क्या अब मैं किसी बाज़ार, किसी भीड़भाड़ वाली जगह पर कुछ देर यूं ही टहल सकती हूं और कोई अश्लील जुमला मेरी तरफ न उछले, कोई गंदी निगाह मुझ पर न उठे। अपने पूरे सम्मान के साथ एक खूबसूरत रात में मैं यूं ही चहलकदमी कर सकती हूं। अफसोस...।

हां कुछ बदला तो ये कि 2002 के दिसंबर की उस आखिरी रात की तरह 2013 दिसंबर की आखिरी रात मेरा दिल कहीं बाहर निकलने को बिलकुल न था। इतने सालों की समझ, अनुभव, हलचल और नौकरी की थकान में, साल की आखिरी रात मैं सिर्फ अपने घर में, सोफे पर, कंबल ढांपकर, औंधी पड़ी रहना चाहती थी।

(चित्र गूगल से साभार)




3 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार (02-01-2014) को "नये साल का पहला दिन" चर्चा - 1480 में "मयंक का कोना" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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ईस्वी नववर्ष-2014 की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Arun sathi said...

बेहतरीन....चित्रण

Anonymous said...

samaj ka jevant chitran jo 2016 mai bhi wahi ka wahi hai..
its a very true mirror of the society