11 April 2014

ये ज़िंदगी उसी की है..

इस ख़ूबसूरत गाने को कई-कई बार सुना, जितना सुनो और सुनने को दिल चाहता और आज की हक़ीकत की कसौटी पर ये गीत तो रिसते ज़ख़्मों पर हाथ रखने जैसा है। फिल्म अनारकली का ये गाना। जब अनारकली को मोहब्बत की सज़ा दी जा रही थी। उसे ज़िंदा दीवार में चुनवाया जा रहा था।


ये ज़िंदगी उसी की है जो किसी का है प्यार ही में खो गया...ये ज़िंदगी उसी की है

डर लगता है लोगों को न। किसी का होना और प्यार में खोना। मैं रोज़ सुबह खबरों की दुनिया में जागती हूं। दफ्तर में कुर्सी संभालते ही जिन ख़बरों से दो चार होना होता है उसमें दो एक बलात्कार की खबरें जरूर होती हैं। तीन-चार साल की बच्चियों तक से बलात्कार। ऐसा लगता है कई बार कि शरीर में रग-रग से तेज़ाब बह रहा हो..। आतंक की तरह छा गया है बलात्कार। समझ हासिल कर रही चौदह-पंद्रह-सोलह साल की बच्चियां इस शब्द से गुत्थमगुत्था होने लगीं हैं और आपस में गुपुचुप इस पर बातें करती हैं। औरतों से अपराध की ख़बरों ने लड़कियों के रूह को छलनी कर दिया है। प्यार की लहर उठने की उम्र में अगर बलात्कार-लड़कियां उठाने, मारने, तेज़ाब झोंकने जैसी घटनाओं की दहशत उठ रही हो तो ये वक्त किसी सूरत में बदलना चाहिए। ये किस तरह का समाज बना रहे हैं हम। ये कैसा माहौल बना रहे हैं हम। क्या एक सभ्य समाज में प्यार से ज्यादा नफ़रत की जगह होनी चाहिए।

जो दिल यहां न मिल सके, मिलेंगे उस जहान में, खिलेंगे हसरतों के फूल, जा के आसमान में
ये ज़िंदगी चली गई जो प्यार में तो क्या हुआ...

जब ये तय है कि प्यार करनेवालों पर कितने पहरे बिठा लो, कितनी पंचायतें कर लो। खाप, और खाप के बाप भी हों..। नहीं बदल सकते। किसी के दिल में पनप रहे अदने से प्यार को। तो वो प्यार अदना नहीं उसके आगे अदने से आप हो। कितने लड़के-लड़कियां सोलह-सत्रह-अठरह की उम्र में मार दिए जाते हैं। लैला-मजनूं, सिरी-फरहाद तो दो चार कहानियां हैं। कितनी लैला, कितनी सिरी कत्ल कर दी गईं, कत्ल की जा रही हैं। कितने मजनूं, कितने फरहाद मार-काट दिए गए। हुआ क्या। मुज़फ़्फ़रनगर को देखो। हैवानियत की आग में जल गया। प्यार में डूबा एक जोड़ा ही तो था। जिससे किस्सा शुरू हुआ। उसे रोकने, मारने, खत्म करने की, नफरत की चिंगारी ने, मुज़फ़्फ़रनगर में कितने घर जला दिए। प्यार पर सियासत खेल गई। मुज़फ़्फ़रनगर के लोगों के हाथ क्या आया।
ग़म, गुस्सा,आंसू, जले घर, बुझे चूल्हे, मरे हुए छोटे बच्चे, लुटी-पिटी औरतें। क्या यही हासिल चाहिए था। क्या इतने बर्बर हैं हम। कि एक चिंगारी उठे और हमारे दिलों के अंदर दबी बर्बरता, हमारे अंदर पल रहा जानवर बाहर निकलकर नंगा नाच करे। हैवानियत का खेल खेले।

सुनाएगी ये दास्तां शमा मेरे मजार की, फिजा में भी खिली रही ये कली अनार की
इसे मजार मत कहो ये महल है प्यार का

मुज़फ़्फ़रनगर दंगों में एक छोटी सी बच्ची लापता हुई थी। कोई 6 साल की। हिंदू की बच्ची थी। पार्वती सरीखा कुछ नाम था। एक मुसलमान को मिली। वो बच्ची को घर ले गया। उसकी पत्नी ने बच्ची को आसरा दिया। बीस दिनों तक वो हिंदू बच्ची मुसलमान परिवार के घर महफूज़ रही। एक मुंह से दूसरे मुंह खबर आगे बढ़ती रही। बच्ची के माता-पिता आ पहुंचे अपनी पार्वती को साथ ले जाने।  सबने मिलकर तस्वीर खिंचाई। तस्वीर टीवी-अखबारों में आई। सबने दिल खोलकर कहा इंसानियत इसी को कहते हैं। जिस समय मुज़फ़्फ़रनगर नफ़रत की आग में धधक रहा था ये प्यार और इंसानियत की शमा रौशन हो रही थी। इसे मजार मत कहो ये महल है प्यार का।


 ये ज़िंदगी की शाम आ, तुझे गले लगाऊं मैं, तुझी में डूब जाऊं मैं, जहां को भूल जाऊं मैं
बस एक नज़र मेरे सनम....अलविदा अलविदा अलविदा अलविदा अलविदा अलविदा अलविदा अलविदा

और अगर तुर्रा हार मनवाने का है। सिर झुकाने का है। खत्म करने, तहस-नहस करने पर ही अमादा हों सभी।
नहीं ठहरेगी लड़कियों से हिंसा की ये वारदातें। उन्हें दबाने-झुकाने-नीचा दिखाने की कसरतें। तो तस्वीर ऐसी बनती है कि क्या सब लड़कियां खड़ी हो जाएं किसी गहरी खाई किनारे या खुद ही चुनने लगें खुद को अपनी हसरतों की दीवारों में...ये गाते हुए कि ऐ ज़िंदगी की शाम आ तुझे गले लगाऊं मैं, तुझी में डूब जाऊ मैं, जहां को भूल जाऊं मैं....कह जाएंगी अगर सब लड़कियां दुनिया को अलविदा....क्या दुनिया चलेगी। क्या माओं की कोख में अंकुर बनने से मना कर देंगी लड़कियां, जन्म लेने से मना कर देंगी लड़कियां। फिर क्या करोगे।

सच तो ये है कि लड़कियां गाना चाहती हैं ज़िंदगी का सबसे अच्छा राग...वो है...

ये ज़िंदगी उसी की है जो किसी का हो गया, प्यार ही में खो गया


सच यही है कि लड़कियां प्यार ही तो करना चाहती हैं, प्यार गाना चाहती हैं, वो मजार को भी प्यार का महल बनाती हैं, वो शमां हैं, जो प्यार की दास्तां सुनाती हैं...। मत रौंदो। पछताओगे।

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