13 November 2015

खिड़कियां

खिड़की
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दरवाजों की मौजूदगी में भी खिड़कियों की अहमियत कम नहीं होती। खिड़कियां एक रहस्य की माफिक लगती हैं। अंधेरे में उजाले का रहस्य। बंद कमरे की घुटन में खुली हवा का रहस्य। घेरेबंदी के बीच आज़ादी का रहस्य। दीवारों के बीच उम्मीदों का रहस्य। सीक्रेट दरवाजा होती हैं खिड़कियां। और दरवाजे तो आपका फैसला हैं। आप अंदर रहें या बाहर। बंद दरवाजों के बीच भी खुली खिड़की में आसमान का नीला रहस्य छिपा है। जैसे आपकी सोच को उड़ने की आजादी मिलती हो। विचारों को कभी थोड़ी धूप मिल जाती है, कभी ताजी हवा। हां आंधी-तूफान में खिड़की भी फैसला बन जाती है। रात में खिड़की से झांकता चंद्रमा हमारे सपनों का रहस्य लिए होता है। जैसे वो भी आसमान की खिड़की से झांककर धरती को देखता हो। जो पाया सो पाया। जो रह गया बाकी, जो नहीं हुआ हासिल, उस दुनिया में खुलती है उम्मीद भरी खिड़कियां। सपनों का पीछा करती हुई। ख्वाहिशों का सीक्रेट जानती हैं खिड़कियां। हर कमरे में जरूर होनी चाहिए  कम से कम एक खिड़की।

22 June 2015

कमाल की कंगना




वाह कंगना। फिल्म तनु वेड्स मनु पार्ट टु कई मामलों में कमाल है। हर किरदार ने अपना काम बखूबी किया है। बाकी अभिनेत्रियों से अलग हटकर कंगना रनोट ने इस फिल्म से एक नया मील का पत्थर जड़ दिया है। ये फिल्म पूरी तरह कंगना की है। बॉलीवुड हिरोइन्स की अदाएं, नाज़-नखरे तकरीबन तयशुदा बॉ़डी लैंग्वेज, फेशियल एक्सप्रेशन्स, आई एक्सप्रेशन्स होते हैं। इसलिए अभिनेत्रियों का फिल्मी सफ़र काफी छोटा भी होता है। कंगना इससे कहीं आगे जाती हैं। उनकी मुस्कान बॉलीवुडिया मुस्कान से अलग खिंचती है। अपने किरदार में समाते हुए वो वैसे ही हंसती है जैसे मोहल्ले की कोई छोकरी हंसती होगी। नाचने के दृश्यों में वो सबसे ज्यादा खुलकर सामने आती हैं। आम शादी-बारातों में जिस तरह अल्हड़ लड़के नाचते हैं, कंगना भी उसी जोश को दर्शाती है, इस कड़ी में मुझे वो लड़के और लड़कियों को बराबरी पर लाती भी नज़र आती हैं। मुझे महसूस होता है कि आमतौर पर शादी-बारात में लड़कियां नाचती तो हैं लेकिन वहां भी वो तयशुदा लटके-झटकों में ही नाचती हैं। खुलकर नहीं। तनु के किरदार में नाचती हुई कंगना उस दायरे को तोड़ती है और एक आम बाराती की तरह खूब जम के नाचती है। फिल्म का वो दृश्य भी खूब है जब सड़क पर जा रही बारात को देख वो बाइक से उतरती है, पूरे जोश में नाचती है और फिर आगे बढ़ जाती है। उस वक़्त उनके चेहरे पर एक्सप्रेशन तेज़ी से बदलते हैं। तेज़ी से बढ़ते कदम के साथ बारात की मस्ती की जगह चेहरे पर बेवफ़ाई का दर्द ढलता चला जाता है, कुछ क्षणों में आंखों की मस्ती की जगह चिंगारी भरती चली जाती है, गले से उतरकर चुन्नी कदमों में गिर जाती है। कंगना की तुलना कुछ-कुछ मशहूर पॉप स्टार शकीरा से करने का जी भी चाहता है। वही बेलौस अंदाज़, बिंदासपन।

हालांकि बॉलीवुड मेल डॉमिनेटेड है जहां अभिनेताओं की तुलना में अभिनेत्रियों को पैसे भी कम मिलते हैं और उनके किरदारों में वेराइटी भी कम होती है। बावजूद इसके कई अभिनेत्रियों ने अपनी अलग पहचान बनायी है। मधुबाला, मीना कुमारी से लेकर माधुरी दीक्षित, तब्बू, विद्याबालन तक ने अदाकारी के नए जौहर दिखाए हैं। ये अभिनेत्रियां अपने दम पर फिल्म को ले जाती हैं। बॉलीवुड में लव स्टोरीज़ से हटकर प्रयोगात्मक फिल्में भी बन रही हैं लेकिन माधुरी दीक्षित, तब्बू, विद्या बालन जैसी अदाकाराओं को अब भी लीक से हटकर स्क्रिप्ट पर काम करने के मौके बहुत नहीं मिलते।

कंगना ने क्वीन फिल्म में भी अपनी जबरदस्त एक्टिंग से आलोचकों की तारीफें बटोरी। तनु वेड्स मनु 2 ने तो उन्हें बेमिसाल बना दिया। अपने वक़्त की तमाम बॉलीवुड एक्ट्रेसेस से कहीं आगे पहुंचा दिया।
फिल्म के डबल रोल में कंगना अपने किरदार में इतना रमी हुई थीं कि दोनों बिलकुल जुदा कंगना लग रही थीं। ऐसा लगता ही नहीं कि दोनों लड़कियां एक ही हैं। हरियाणवी बोली तो क्या खूब पकड़ी। हरियाणवी एक्सेंट में उनके डायलॉग खूब जंचे। जब वो अपना परिचय देती है कि मैं स्टेट लेवल की चैंपियन हूं, शर्मा जी की अंगूठी वापस करती है या फिर फिल्म के अंत में शादी के आखिरी फेरे पर ठहरकर एक बार फिर शर्मा जी से पूछती है कि वो ये शादी सचमुच करना चाहते हैं या नहीं। तनु के किरदार में जहां उनकी आंखें चहकती-भागती फिरती हैं वहीं दत्तो के किरदार में वो ठहरी हुई, गहरी सी लगती हैं। हरियाणवी लड़की का किरदार छोटे शहरों की लड़कियों का उत्साह बढ़ानेवाला भी है।

फिल्म की कहानी तो मामूली ही थी लेकिन बुनावट इतनी बारीक और सुंदर कि शुरू से आखिर तक रवानगी बनी रही। फिल्म का वो सीन भी जबरदस्त था जब बेवफाई की चोट खाकर टिमटिमाती रात में वो झज्जर की  सड़कों पर आवारगी करती हैं, भटकती फिरती हैं।।  बैक ग्राउंड में गाना बज रहा है...जा-जा-जा रे बेवफा। बूढ़े हकीम को वो हाथ की लकीरें दिखाती हैं और ताबीज़ दिये जाने से पहले ही उठकर चल देती हैं।

बॉलीवुड में बाहर से आकर अपनी जगह बनाना आसान नहीं। करियर की शुरुआत से लीक से हटकर फिल्मों का चयन और हर फिल्म में पिछली फिल्म से बेहतर अदाकारी के साथ कंगना ने अपने लिए अलग राह बनायी है।  जो उन्हें उनके वक़्त की तमाम अभिनेत्रियों से अलग खड़ा करती है। फिल्म के तमाम किरदारों के साथ-साथ निर्देशक आनंद एल राय भी बधाई के पात्र हैं।

(चित्र गूगल से साभार)

14 April 2015

डर है कि मानता नहीं





ये कुछ ऐसा है कि हम चांद पर पहुंच जाएं तो वहां भी नींबू-मिर्ची लटका आएं। अंतरिक्ष में उड़ान भरते हमारे मंगलयान-6 पर भी एक नींबू-मिर्ची लटक रहा हो। ऑडी जैसी गाड़ियों पर तो नीबू-मिर्ची लटकाते ही हैं। घर-दफ्तर-दुकान पर तो नींबू-मिर्ची यूं ही लटकते मिलते हैं। टैक्नॉलजी से कितने लैस हों, बड़ा वाला स्मार्टिया फोन लेकर घूमते हों लेकिन नींबू-मिर्ची वाले डर-वहम-मानसिकता से पीछा नहीं छुड़ा पाए। इस मॉल में हम पहुंचे तो बुजुर्ग सी औरत पीली बंधेजवाली साड़ी में लिपटी बड़ी अच्छी लगी। लगा कि सीधे राजस्थान से यहां लैंड किया हो। फिर देखा तो उसके हाथ में नींबू-मिर्ची से भरा एक थैला था। हर शोरूम के दरवाजे पर नींबू-मिर्ची लटका रही थी और सबका हालचाल ले रही थी। बाटा हो या एडिडास, मॉल के प्रांगण में रंगबिरंगी रबरबैंड, क्लचर, चिमटियां,हैंडबैग बेचता छोटा सा दुकानवाला हो या रिबॉक जैसी बड़ी कंपनियां, बिना नींबू-मिर्ची के किसी की दुकान नहीं चल रही थी। उसकी ख़ुशमिज़ाजी देख मुझे उससे बात करने में कोई झिझक महसूस नहीं हुई। मैंने उससे छोटी सी बातचीत की। अम्मा कहां से आई हो, कितने में नींबू-मिर्ची बेचती हो। तो उन्होंने बताया कि चाहे बड़ा झक-झक करता शोरूम हो या, अदना सा कुल्फी वाला। बीस रुपये महीना हर कोई देता है। इस पूरे मॉल से उसे महीने का हज़ार रूपया तक मिल जाता है। मैंने फौरन नींबू का भाव जोड़ने की कोशिश की। बस हजार रुपये महीना। अम्मा बड़ी हाजिरजवाब थी। फट मुझे पहचान भी लिया। देखी है मैंने तुम्हे कहीं। वैशाली सेक्टर तीन में देखी होगी। हां-हां जरूर देखी होगी। फिर वो नींबू-मिर्ची की अपनी थैली लेकर उपरवाले माले की ओर बढ़ गई।

17 March 2015

हिंदी लेखक, लेखक बाद में है

हिंदी के लेखक सिर्फ लेखक होकर क्यों नहीं जी सकते जबकि अंग्रेजी के लेखक सिर्फ अपनी कलम से ही आजीविका चला सकते हैं। क्या तर्क ये कि हिंदी का बाज़ार ग़रीब है । हिंदी पट्टी के लोग आर्थिक तौर पर संपन्न नहीं। हिंदी का लेखक, लेखक बाद में होता है, पहले वो अध्यापक होता है  या कहीं क्लर्क होता है या  फिर कोई और नौकरी। सिर्फ लेखन उसका पेशा हो ये संभव नहीं बन पाता। जबकि अंग्रेजी में सिर्फ लेखन से ही लेखक आराम से जी सकता है, परिवार पोस सकता है, शहर दर शहर भ्रमण कर सकता है।


अपने ही देश में हिंदी कैसे मात खा रही है इसका नमूना अखबारों, टीवी चैनलों या दूरदर्शन में निकलनेवाली नौकरियों से लगाया जा सकता है। अपने अंग्रेजी चैनल के लिए जिस पैकेज पर लोगों को नौकरी पर रखता है, हिंदी चैनल में पैसा आधे से भी कम हो जाता है। देश में सबसे ज्यादा अखबार हिंदी भाषा में निकलते हैं तब ये कि हिंदी के लेखकों को, अंग्रेजी के लेखकों की तुलना में एक लेख पर अपेक्षाकृत कम पैसे मिलते हैं।


हिंदुस्तान टाइम्स(17 मार्च 2015) में एक रोचक लेख छपा। भारतीय मूल के कुछ अंग्रेजी अरबपति लेखक( बैंड ऑफ बिलियनर्स)।  अंग्रेजी के (विवादित) लेखक सलमान रश्दी की संपत्ति 15 मिलियन डॉलर।  वीएस नायपॉल 7 मिलियन डॉलर। विक्रम सेठ 5 मिलियन डॉलर। किरन देसाई 3 मिलियन डॉलर। अंग्रेजी के पॉप्युलर लेखक चेतन भगत की संपत्ति 1.3 मिलियन डॉलर।  


मुझे यहां ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित मराठी लेखक भालचंद्र नेमाडे की बातें भी याद आ रही हैं। नेमाडे ने कहा कि सलमान रश्दी और वीएस नायपॉल की कृतियों में साहित्यिक मर्म और मूल्यों का अभाव है।
(इस विवादित कार्टून को अंग्रेजी-हिंदी संदर्भ में भी रख सकते हैं,
चित्र गूगल से साभार)
नेमाडे ने सलमान रश्दी की कृतियों पर कहा था कि इन सब में उन्होंने पूरब और एशिया के लोगों की निंदा की और नाकारत्मक पक्ष पेश किया, पश्चिम को ख़ुश करने का प्रयास किया।  नायपॉल को लेकर नेमाडे ने कहा कि भारत को समझने के लिए उन्हें तीन बार फेलोशिप पर भारत आना पड़ा। अगर किसी लेखक को किसी विषय पर समझ बनाने के लिए इतनी बार फेलोशिप लेनी पड़े तो वो लेखक कैसा।
सलमान रश्दी और वीएस नायपॉल सबसे अमीर (अंग्रेजी) लेखकों में से हैं।


हिंदी के उन अग्रणी लेखकों की याद आ रही है जिनकी रचनाएं स्कूली किताबों में पढ़कर हम बड़े हुए। अपने जीवन के अंत समय में जिन्होंने बेहद मुश्किल से गुजारे। इलाज के लिए पैसे तक न मिल पाए। निराला का जीवन घोर गरीबी, त्रासदी, संघर्ष से घिरा रहा। आर्थिक तंगी से जूझते रहे अमरकांत का इंटरव्यू पढ़ा था कि लेखक न तो शहीद होता है न मोहताज।


आज के इस समय में कई लेखक-पत्रकारों की हालत देख रही हूं। समय से पहले नौकरियों से बाहर कर दिये गये लोग जो काबिल हैं और तिल-तिल कर मर रहे हैं। कई साल पत्रकारिता में गर्क करने के बाद दूसरे कामधंधे के बारे में सोच रहे हैं। क्योंकि कम पैसे पर काम करने के लिए नौजवान तैयार हैं।  एक वरिष्ठ की जगह  मालिक दो कनिष्ठों को रखने की रणनीति पर काम कर रहा है। तो दस पंद्रह साल की नौकरी के बाद  कईयों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जा रहा है। 35 की उम्र में रिटायर कर दिया जा रहा है। हिंदी लेखकों के साथ तो स्थिति इतनी बुरी है कि काम कराये जाने के बाद उनका पैसा कब आएगा, आएगा या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं।  अंग्रेजी लेखक रॉयल्टी का सुख उठाते होंगे हिंदी लेखक इसकी उम्मीद बेहद कम ही करते हैं।


हां कमाई करनेवाले हिंदी लेखक भी हैं। साल के बारह महीने जिनके कार्यक्रम  तय होते हैं। देश के सबसे अमीर कवि भी हैं जिन्हें कवि सम्मेलन में जाने के लिए लाखों के चेक मिलते हैं। मगर ऐसे लेखक और कवि चुनिंदा हैं और इतर वजहों से भी जाने जाते हैं।


और आखिर में ये देश हिंदी सिने प्रेमियों का है। जहां हिंदी सिनेमा की धूम रहती है। हिंदी फिल्में रिलीज होने के कुछ ही दिनों में सौ करोड़ की कमाई कर लेती हैं।  हिंदी अभिनेता-अभिनेत्रियों को एक फिल्म में अभिनय करने के करोड़ों रुपये मिलते हैं। लेकिन इन फिल्मों-प्रोडक्शन हाउस-सीरीयलों में काम करने के लिए अंग्रेजी आनी आवश्यक है। हिंदी फिल्मों की स्क्रिप्ट हिंदी नहीं अंग्रेजी में लिखी जाती है। हिंदी कहानी को सबमिट करने के लिए अंग्रेजी में अनुवाद करना पड़ता है। पुरस्कार के लिए जमा की जानी वाली रचनाएं यदि अंग्रेजी से इतर भाषा की हैं तो उनका अंग्रेजी में अनुवाद कराना पड़ता है। अब बताइये कि हिंदी फीचर का अगर कोई अंग्रेजी में अनुवाद करेगा तो शब्दों और भाषा का रस कहां रह जाएगा। और जाहिर है कि हिंदी में लिखनेवाला लेखक स्वयं तो अंग्रेजी अनुवाद कर नहीं पाएगा। हिंदी पट्टी में ही हिंदी अछूत है, उपेक्षित है और हिंदी भाषी  बेबस-मजबूर।

09 March 2015

India's Daughter, शुक्रिया leslee udwin












शुरू-शुरू में तो मुझे भी बेहद अजीब लगा कि एक रेपिस्ट बताएगा लड़कियों को कैसा रहना चाहिए, किस समय घर से  बाहर निकलनेावली लड़कियां गंदी लड़कियां हैं, रेपिस्ट समझाएगा कि महज 20 फीसद लड़कियां ही अच्छी लड़कियां हैं।   
लेकिन शुक्रिया लेजली उडविन का। India’s Daughter के नाम से उन्होंने एक बेहतरीन डॉक्युमेंट्री बनायी। वो जो हम न बना सके। डॉक्युमेंट्री देखने के बाद मेरा विचार बदला।
इस पर प्रतिबंध लगाया जाना मुझे ठीक नहीं लगता। तब भी जब मुझे ये लग रहा था कि एक रेपिस्ट के विचारों को लोग जानें। दरअसल मेरा डर ये था कि लोग, अधिकांशत: युवा, नकारात्मक बातों को जल्दी स्वीकार करते हैं। अपराध की दुनिया, अपराधी की सोच जाने-अनजाने हमारे अवचेतन पर नकारात्मक प्रभाव छोड़ते हैं। जैसे भद्दे गाने, एक्शन फिल्में जल्दी पॉप्युलर होती हैं, अच्छी चीजों को जगह बनाने में वक़्त लगता है।

डॉक्युमेंट्री देखते हुए एक बार भी  बीच में रुकने की इच्छा नहीं हुई। निर्भया के मां-बाप की बातें, अपराधी मुकेश की बातें एक दूसरे को काउंटर कर रही थीं। जब मुकेश कहता है कि लड़कियों को रात में अकेले  बाहर नहीं निकलना चाहिए तब निर्भया की मां बताती है कि उसकी बेटी रात 8 बजे से सुबह 4 बजे तक इंटरनेशनल कॉल सेंटर में काम करती थी, ताकि अपनी पढ़ाई का खर्च उठा सके और फिर सुबह कॉलेज जाती थी। मुकेश कहता है कि लड़कियों का काम है घर की साफ-सफाई, खाना बनाना...। निर्भया की मां बताती है कि उसकी बेटी ने पढ़ने के लिए कितनी मेहनत की, पिता से कहा कि जो पैसे उन्होंने उसके दहेज के लिए रखे हैं उसे पढ़ाई पर खर्च कर दीजिए। आंखों में गर्व और आंसू लिए मां  बताती है कि कैसे एक छोटे से शहर में रहनेवाली लड़की ने अपनी अंग्रेजी इतनी अच्छी कर ली कि उसे अमेरिकन इंटरनेशनल कॉल सेंटर में नौकरी मिल गई।

पूरी डॉक्युमेंट्री में अपराधियों के चेहरे पर अपने किये पर पछतावे के कोई लक्षण नहीं दिखे। मुकेश बताता है कि आगे कोई रेप करेगा तो लड़की को जिंदा नहीं छोड़ेगा ताकि वो उसे पहचान न सके। कानून का ये खौफ़ हैे अपराधियों पर। तो यहां शर्म हमारी कानून व्यवस्था को लागू करनेवालों को आनी चाहिए। मुकेश तकरीबन वही बातें कर रहा था जो सचमुच हमारे ईर्दगिर्द रहनेवाले ज्यादातर लोग करते हैं। उसकी बातें शरीफ लोगों को बातों जैसी ही थीं।  हम एक रेपिस्ट की कुंठित मानसिकता ही नहीं समझ रहे थे, उसे  सुनते हुए अपने चारों तरफ के तमाम लोग  ख्याल आ रहे थे जो यही बातें बोलते हैं। यही बात गीतकार-सांसद जावेद अख्तर ने कही-”डॉक्युमेंट्री को सामने आने दीजिए, एक रेपिस्ट वही तो बोल रहा है जो आम शरीफ लोग बोलते हैं, जो बातें वो संसद के गलियारे में अक्सर ही सुनते हैं।”
लेकिन सबसे ज्यादा घिन तो अपराधियों का केस लड़नेवाले दोनों वकीलों की बातों को सुनकर आ रही थी।  जो एक लड़की को कभी नाजुक फूल बना रहे थे, तो कभी उस पर पेट्रोल डालकर जलाने की बात कह रहे थे। उनकी सोच तो अपराधियों से भी ज्यादा  खौफनाक और लीचड़ थी। उनके मुंह से लिजलिजी बातें निकल रही थीं, जो एक रेपिस्ट की बातों से भी ज्यादा खतरनाक थीं। छी...।

लेजली की डॉक्युमेंट्री देखते हुए एक और बात समझ आ रही थी। लेजली उन झुग्गियों में गईं जहां मुकेश और उसके साथी रहते थे। उनके परिवारों के हालात, उन झुग्गियों के हालात देख यही लग रहा था कि ये जगहें तो अपराधी बनाती हैं। जहां जीने के लिए इतने बदतर हालात हों,वहां गुदड़ी का लाल तो कोई एक आध बनेगा ज्यादातर तो  नकारात्मक ऊर्जा से ही प्रभावित होंगे। रात को जगमगाती ऊंची-ऊंची इमारतों के साये में बसी, हर तरह के अंधेरे में डूबी झुग्गियां कैसे इंसान बनाएंगी। जहां एक मां कहती है कि मुझे तो पता ही नहीं था कि मेरा बेेटा जिंदा भी है, वो तो पुलिस जब उसे ढूंढ़ते हुए आई तो पता लगा कि मेरा बेटा जिंदा है,मैं तो उसे मरा हुआ मान चुकी थी।

डॉक्युमेंट्री में निर्भया आंदोलन के दृश्य दोबारा देख एक बार फिर रगों में जमा ख़ून खौलने लगा कि क्या हम सचमुच भूल चुके थे उस आंदोलन को। हमारी मांग सिर्फ निर्भया फंड तो नहीं थी। लगा कि दोषियों को फांसी देने में इतना वक़्त निकल जाता है कि फांसी की सज़ा का जो असर जनमानस पर होना चाहिए था वो अब नहीं होगा। फिर ऐसी फांसी का मतलब भी नहीं रह जाता है। और हां मैं भी ऐसे अपराधियों पर फांसी के पक्ष में हूं जो ऐसे जघन्य अपराध करते हैं। लेकिन दीमापुर की घटना के पक्ष में बिलकुल नहीं जहां रेपिस्ट को जेल से निकालकर भीड़ जानवर बन गई।
आखिर में शुक्रिया Leslee Udwin, you have done a great job. और ज्योति अपने नाम की तरह ही तुमने दुनिया को नई ज्योति दी।

22 February 2015

नहीं करना बीएड..अब बोलो


                                                                                                    (चित्र गूगल से साभार)
हर वो चीज जो लड़कियों पर चरित्र प्रमाण पत्र की तरह चस्पा कर दी जाती हैं मुझे उस पर बेहद गुस्सा आता। जैसे लड़कियां आर्ट्स लेती हैं साइंस नहीं। तो मैंने साइंस ली। लड़कियां बायोलॉजी लेती हैं मैथ्स नहीं। तो मैंने मैथ्स लेने की ठानी। और सारे इम्तिहानों में पास भी हुई। हां अगर आर्ट्स के कुछ सबजेक्ट्स पढ़े होते, इतिहास-भूगोल ज्यादा पढ़ा होता तो और अच्छा रहता। लेकिन विज्ञान भी मुझे प्रिय रहा। ख़ास तौर पर फिजिक्स। कैमेस्ट्री नहीं।  ग्रेेजुएशन के बाद अपनी राह तलाश रही थी। तो बीएड करो लो। बीएड करा दो। नारे की तरह ये शब्द चारों ओर गूंजते। पड़ोस की आंटियों की सलाह। अंकल जी लोगों की भटकती मुस्कान के साथ बीएड करने की सलाह। सारे जहां के बड़े भईया लोगों की यही सलाह। सारी-सारी लड़कियां पढ़ाई करें और फिर वो सारी-सारी लड़कियां बीएड कर लें। ये बात मुझे बहुत नागवार गुजरती। बीएड किया है क्या,ये सवाल मुझपर तीर की तरह गुजरता। लड़कियां बीएड करें इससे मुझे कोई ऐतराज नहीं। शिक्षिका की नौकरी कुछ सुकून का पेशा होता है। जिसमें परिवार और बच्चों की जिम्मेदारी निभाने में सहूलियत रहती है। दूसरी नौकरियों में दिक्कत होती है। लेकिन दिक्कतों से जीवन में कहां तक बचा जा सकता है। जीवन में किस तरह की दिक्कतों और किस तरह की सहूलियतों का चुनाव किया जाये, ये आप पर है।  ठीक है लड़कियां  बीएड करना पसंद भी करती हैं। लेकिन बीएड को हर लड़की पे चस्पा कर देना भी तो ठीक नहीं। मां-बाप और उनकी पीढ़ी के लोगों को तो एक बारगी छोड़ दो। लेकिन हमारे टाइम में ट्रैवल कर रहे लोग भी जब ये सलाह देते हैं तो मन गुस्से से भर जाता है।

नौकरी में जरा उठापटक हुई तो बीएड कर लो। नौकरी के दरमियान कुछ परेशानियां आयीं तो उसका हल ये कि बीएड कर लो। नौकरी के 12-13 साल बाद भी लोग इस तरह की सलाह देने से गुरेज नहीं करते। ऐसी सलाह देनेवालों में पुरुषों से आगे महिलाएं रहती हैं। कहां मंगल अभियान समेत अंतरिक्ष अनुसंधानों में शामिल (महिला) वैज्ञानिकों की तस्वीर मेरे ज़ेहन पर मिसाल के रूप में चस्पा हो गई है। मैं वैज्ञानिक टेसी थॉमस के तार्किक दिमाग के बारे में सोचती हूं जिन्होंने अग्नि परियोजना को अंजाम तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभायी। जिन्हें अग्निपुत्री कहा गया। मैं दुनिया-जहां में लीक से हट कर काम कर रही लड़कियों-महिलाओं की बात पढ़ती-लिखती हूं। वो पहली महिला जिसने ट्रक ड्राइवर बनना पसंद किया मैं उसकी हिम्मत की दाद देती हूं। अंतरिक्ष में उपस्थिति दर्ज कराने से लेकर पेट्रोेलपंप पर पेट्रोल डालती महिलाओं को मैं ख़ासतौर पर रेखांकित करती हूं। पर ये बीएड का बाजा अपने यहां थमता नहीं। ये लिखते हुए मुझे अपने चाचा की बेटी की याद आ रही है। छोटे कस्बे की लड़की को पढ़ाने के लिए उसके मां-बाप ने उसे उसकी बुआ के पास रखा। जहां अच्छा स्कूल था अच्छी पढ़ायी। 12वीं तक लड़की अपनी मां के साथ नहीं बुआ के साथ रही कि पढ़ाई कर ले। उसका एक रोज मेरे पास फोन आया- दीदी मुझे भी मास कम्यूनिकेशन की पढ़ाई करनी है। क्या करना होगा कैसे करना होगा। मैंने इस बारे में उसे जानकारी दी। कुछ महीने बाद पता चला कि वो तो बीएड कर रही है। मैंने पूछा तो पता चला कि उसके चचेरे बड़े भाई की सलाह या निर्देश पर उसने बीएड में दाखिला दिला दिया गया। मुझे अफसोस हुआ। जिसकी पढ़ाई के लिए उसे बचपन में परिवार से दूर किया गया उसका अंजाम अगर बीएड ही होना था तो उसी कस्बे में उसे पढ़ने देते। मैं तो यही कहूंगी कि लड़कियों जो करना चाहो करो। बीएड से आगे दुनिया बहुत-बहुत है।


12 February 2015

प्रेम के विरोध में काला गुलाब

10649932_804802942889354_4930702113180452523_n.jpg (चित्र फेसबुक से साभार)
चलो इस वेलेंटाइन डे पर ढूंढ़ी जाए कोई ऐसी प्रेम कविता जो प्रेमी दिलों  के तड़पते  दिलों का हाल खोल दे।  बताए नफरत फैलानेवालों को कि प्रेम ताकत देता है। ख्वाहिशों का आसमान रंग देता है। प्रेम में एक छोटी कश्ती दरिया के उफान को पार कर जाती है। नहीं-नहीं छोड़ो। इस बार ये सब नहीं।  
लव जेहाद का उन्माद फैलानेवालों की बात तो कतई नहीं। इससे प्रेम का जायका बिगड़ जाता है। तो उन नौजवान लड़के-लड़कियों की बात जो इस दिन बैठने के लिए कोई रेस्तरां, कोई पार्क तलाश रहे होंगे। घरवालों की निगाहों से छिपकर गुलाबी-लाल पोशाक में लड़कियां अपने प्रेमियों के पास पहुंचने को आतुर होंगी। कॉलेज की एक्स्ट्रा क्लास या किसी फ्रेंड का बर्थडे, किताबें लौटाने की बहानेबाज़ियां। और सज-धज कर तैयार प्रेमी जिन्होंने लाल गुलाब का इंतज़ाम पहले से ही कर लिया होगा कि कहीं वेलेनटाइन डे के दिन गुलाब कम न पड़ जाएं। सबसे सुंदर तो इस दिन फ्लोरिस्ट शॉप लगते हैं। प्रेम और फूलों की खुशबू से गुलजार। लाल गुलाब की बहार। पर इस बार इनकी बात भी नहीं करते।
चलो काले गुलाब की बात करते हैं। अच्छा नहीं लगा न। वेलेनटाइन डे के दिन काला गुलाब। क्यों भला।  अखबार के पन्नों में एक-दो कॉलम की खबरें होती हैं, लड़की के चेहरे पर तेज़ाब डाला। हम ऐसी कितनी खबरों से यूं गुजर जाते हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं। वो घटनाएं हमें कुरेदती तो है लेकिन पन्ना पलटा और बात खत्म।  वो लड़कियां  प्रेम के विरोध में काला गुलाब दे रही हैं और अपना कसूर पूछ रही हैं। सड़क पर बेखबर जा रही लड़की जिसने उस शख्स का प्रेम प्रस्ताव ठुकरा दिया, जो तेजाब की बोलत छिपाए उसका इंतज़ार कर रहा है, लड़की यहां से गुजरेगी, वो उस पर तेज़ाब डालेगा और भाग निकलेगा। सिर्फ इसलिए कि उस लड़की ने उसे न कह दिया था। वो प्रेम तो कतई नहीं था। कितनी लड़कियों की ज़िंदगीt, चेहरे और सपने तेजाब के हमले में झुलस रहे हैं। उनमें से कई हिम्मत हार जाती हैं लेकिन कुछ इस हादसे से उबर कर जीती भी हैं। stop acid attack  ऐसी ही लड़कियों की संस्था हैं। जो सोशल मीडिया से लेकर दिल्ली के जंतर मंतर तक अपनी आवाज़ बुलंद कर रही हैं। जो अदालत में इंसाफ की लड़ाई लड़ रही हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद तेजाब की बिक्री अब भी खुलेआम हो रही है।  वो तेजाब फेंकनेवालों पर कठोर सजा की मांग कर रही हैं और पीड़ितों के लिए पुनर्वास।
तेजाब के हमले से बुरी तरह लक्ष्मी अग्रवाल की हिम्मत की जितनी दाद दी जाए कम है। वो इस दर्दनाक घटना से न सिर्फ खुद निकलीं बल्कि कितनी लड़कियों को हौसला दे रही हैं। लक्ष्मी जब 16 साल की थी तो 32 साल के एक व्यक्ति ने उस परे तेजाब डाला था। क्योंकि लक्ष्मी ने उसके शादी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। 8 सालों तक लक्ष्मी अपना चेहरा छिपाती रही। लेकिन बस में गैंगरेप की घटना के बाद लक्ष्मी दुनिया के सामने आई। स्टॉप एसिड अटैक ग्रुप से जुड़ी। अपने साथियों के लिए हौसला बनी। अमेरिका में  मिशेल ओबामा ने लक्ष्मी को इंटरनेशनल वुमन करेज अवार्ड से नवाजा।
क्या आपको हमारी इन दोस्तों का काला गुलाब स्वीकार है। ये लड़कियां कहती हैं कि हमारे लिए तेजाब का एक तालाब बनवा दो हम उसमें छलांग लगाने को तैयार हैं, तुम्हारे इस तेजाबी सच्चे प्यार में पूरी तरह जलने को तैयार हैं, कि फिर शायद तुम्हारा प्यार मुझमें और गहरा और सच्चा होगा, पूछती हैं कि क्या फिर तुम उन्हें अपनाओगे, ये लड़कियां दुआ मांगती हैं कि अगले जनम वो तुम्हारी बेटी बनें और तुम जैसा आशिक उन्हें फिर मिले। क्या सहन कर पाओगे।

दोस्तों हमारी तरफ से तुम्हें ढेरों लाल गुलाब। तुम उन्हें स्वीकार करना। तुम बहुत हिम्मती हो, हम बहुत कमज़ोर। हमें माफ करना। अपने सपनों को जीना। अपने सपनों से प्रेम करना।

01 February 2015

कवि वीरेन डंगवाल से एक मुलाकात






वीरेन डंगवाल जी के साथ ये मुलाकात हासिल करना मेरे लिए एक सुंदर सपने के सच होने जैसा ही है। जिनकी कविताओं की रौशनाई में समंदर सितार बन जाता है, बच्चा कबाड़ी की संगीतमय पुकार अज़ान बन जाती है,जो अरे,अबे,ओ करुणानिधान करते हुए भगवान के कारखाने की दरयाफ्त कर आते हैं और कद्दू-समोसे, नाक तक की खबर लेते हैं। कभी अबे गधे कहकर कान खींचते हैं। अपनी ही परछाईं में खुद को ढूंढ़ते हैं तो कभी न लिए गए चुंबन में।

उनसे मिलने से पहले मैंने सोचा कि  कुछ तैयारी कर लूं, उनकी कुछ कविताएं कंठस्थ कर लूं, पर ऐसा कर न सकी। कुछ लोगों को नजदीक से देखकर लगता है कि एक साधारण व्यक्ति कितना असाधारण जीवन जी सकता है। किस तरह लोगों का मार्गदर्शन करता है। हमारी दुविधाओं से हमें उबारने में कवि कितनी मदद कर सकता है। निश्चित तौर पर वीरेन जी ऐसे ही लोगों में से एक हैं। बिना किसी आडंबर, लाग-लपेट के, साफ दिल-साफगोई, एक खुली किताब से मिलना हुआ हो जैसे।

वीरेन जी की सेहत पिछले दिनों काफी खराब रही थी। पर अब पहले से काफी सुधार था।  खुद वीरेन जी ने कहा कि एक बार फिर नए सिरे से उन्होंने लिखने की कोशिश की है। बीमारी ने जैसे दिल-दिमाग के पन्नों पर रबर से मिटाकर सबकुछ साफ कर दिया हो। बीमारी से लड़ते हुए एक बार फिर वो शब्दों का संसार रचने को तैयार हो गए हैं। अपने पोते-पोती पर लिखी एक कविता का  जिक्र  किया और बीमारी लड़ते हुए मन का भी।

इस अंधेरे में तेज़ रोशनियों ने बचाया मुझे/ या अक्टूबर की ओज से आभासित / चांद की स्मृति ने/या तुम्हारे प्यार ने/ मैं नहीं बताऊंगा/ इस बीमारी में/ अबतक दवाओं और डॉक्टरों ने बचाए रखा मुझे/ या किसी उम्मीद ने
/ या तुम्हारे प्यार ने/ मैं नहीं बताऊंगा

वीरेन जी के साथ पत्रकारिता और पत्रकारों की मौजूदा हालात पर बात हुई।  पत्रकारिता के क्षेत्र में निराशा छा गयी है जैसे। कई सालों की मेहनत के बाद अचानक नौकरी से बेदखली। एक-दो नहीं एक पूरी जमात कोअचानक सड़क पर ला देना। एक व्यक्ति के साथ एक परिवार के आगे रोजी-रोटी चलाने का आर्थिक संकट।
वीरेन जी ने कहा कि पत्रकार और पत्रकारिता इस समय बेहद संकट भरे हालात से गुजर रहे हैं।  
पत्रकारिता का इस समय जो हश्र है मेरा ख्याल है कि पिछले डेढ़ सौ सालों में ऐसा नहीं हुआ। काबिल लोग निकाले जा रहे हैं बिना किसी वजह के। जब से पूंजीपतियों के हाथ में मीडिया आ गया है, स्थिति बदतर हुई जा रही है। अखबारों और टीवी का तो अब कोई भविष्य नहीं दिखता। इंटरनेट का ज़माना आ गया है। अब भविष्य इंटरनेट और वेबसाइट्स का ही है। वर्तमान से जूझते हुए एक नए भविष्य की कल्पना से तर दिखे वो।

इस बीच उन्होंने इलाहाबादी बोली में अपनी पत्नी को कहा-ज़रा चइया त बोल दई….उधर चाय बन रही थी इधर हमने मौके का फायदा उठाते हुए कुछ तस्वीरें मोबाइल कैमरे में उतार लीं। वो भी सहर्ष तैयार हुए...हां-हां क्यों नहीं, फोटो ले लो। घर में उनकी पत्नी के साथ बेटे-बहू-पोते-पोती मौजूद थे। हमारी चाय आ गई और अब कविताओं पर कुछ बात हो रही थी। मैं उनकी वो कविता याद कर रही थी….

अपना कारखाना बंद कर के/ किस घोंसले में जा छिपे हो भगवान/ कौन सा है वो सातवां आसमान/हे, अरे, अबे, ओ करुणानिधान

वीरेन जी ने अपनी कविताएं सुनाने के लिए अगली बैठक का वादा किया और मुझसे मेरी कविता सुनाने को कहा। लगा कि उनके सामने ऐसा करने की हिमाकत मैं कैसे कर सकती हूं। मैंने भी अगली मुलाकात में कविताएं सुनाने की बात कही। फेसबुक-ट्विटर के दौर में वो बोले कि आज तो लेखक चाहते हैं कि वो फटाफट कुछ लिखें और उसे ढेर सारे लाइक्स मिल जाएं। सब्र नहीं है। अच्छी कविता, अच्छा लेख लिखने के बाद उसे समय देना चाहिए। या तो लोग लिख नहीं रहे अब, और लिख रहे हैं तो ऐसे कि बस....।  मैं मन ही मन हंसी कि सचमुच कितने लाइक्स मिले..का बेसब्री से लोग इंतज़ार करते हैं, लाइक्स गिनते हैं। वीरेन जी ने कहा कि अब वो भी फेसबुक, ब्लॉग देखने लगे हैं।  उन्होंने मुझसे मेरा ब्लॉग देखने का वादा भी किया। मेरी कविताएं ब्लॉग पर पढ़ने को मिलेंगी या  नहीं ये भी पूछ रहे थे। और मैं संकोच में डूबी जा रही थी क्या मेरी कविताएं वीरेन जो को सुनाए जाने  लायक हैं।
उन्होंने बताया कि खुद भी वो फेसबुक और सोशल साइट्स को समझने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ लाइक-वाइक करना सीख रहे हैं।

इसके बाद उन्होंने पुराने मित्रों-परीचितों के साथ कविता पाठ का कार्यक्रम भी तय किया। मुझे भी उसमें बुलाया.- वर्षा बेटा तुम भी जरूर आना। मेरे लिए यही बड़ी बात थी।  
इलाहाबाद, पत्रकारिता, कविता, साहित्य की दुनिया से गुजरते हुए अब चलने का समय हो आया था।  अपनी आवाज़ में  निराला जी की पंक्तियां सुनाकर उन्होंने मुलाकात को और खूबसूरत बना दिया….

स्नेह निर्झर बह गया है
रेत ज्यों तन रह गया है
आम की ये डाल जो सूखी दिखी
कह रही है- “अब यहां पिक या शिखी
नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूं लिखी
नहीं जिसका अर्थ
जीवन दह गया है”

मैंने सोचा वीरेन जी की आवाज़ में कितनी गहराई है, जैसे गले से नहीं बल्कि कविता की किसी गहरी नदी, घने जंगल से आ रही हो।

18 January 2015

कोहरे में सफ़र

रोड डायरी


मौत का सफ़र कैसा होता होगा। एक ऐसा सफ़र जो शुरू तो हुआ मगर कोई अंत नहीं। जिसकी कोई दिशा नहीं। कोई लेफ्ट राइट कट नहीं। जहां कोई चौराहा या रेडलाइट नहीं आती। जहां कहीं पहुंचना नहीं होता। जहां कोई दृश्य नहीं होता। कोई मंज़िल नहीं दिखती। बस सफ़र होता है। ये तो कोरी कल्पना है। लेकिन  कोहरे में अगर आप सफ़र कर रहे हों तो ये सच्चाई है। कोहेर का सफ़र मौत के सफ़र  सरीखा ही लगता है। कोई आदि नहीं कोई अंत नहीं। डरे, ठिठके, सावधान, असमंजस, खौफनाक ख्याल...।


दफ़्तर का सफ़र तय करने के लिए सर्दियों की सुबह के कोई पौने 6 बजे घर से निकली। घर का दरवाजा खोला तो हर दृश्य को ढांपता बस कोहरा दिखा। लेकिन इतना घना कोहरा होगा कि एक हाथ आगे कुछ न दिखायी दे, ये अनुमान नहीं लगा पायी। सड़क पर सफेद बादल उड़ रहे हों जैसे। अब एक बार सफ़र पर निकल पड़े तो लौटने का इरादा नहीं बन सका। खैर कोहरे में ये ख़ौफ़नाक सफ़र शुरू हो चुका था। कोई 200-300 मीटर आगे बढ़ते ही सब तरफ सफेद अंधेरा छा गया।  ऐसा लग रहा  था जैसे मौसम को एनेस्थिसिया का इंजेक्शन दे दिया गया हो  और बेहोशी चढ़ रही हो। सड़क पर गाड़ियां कम ही थीं। इस समय में किसी दूसरी गाड़ी का दिख जाना हिम्मत बंधाने जैसा था। दो गाड़ियां, दो अनजाने लोग साथ चलते तो जैसे जान में जान रहती। मेरे घर से नेशनल हाईवे 24 कुछ ही दूरी पर है। ये हाईवे बस हादसों की ही याद दिलाता  है। हाईवे  के तिराहे की रेडलाइट तक तो पहुंच गई अब यहां से राइट कट लेना जान पर खेलने जैसा लग रहा था। दूर से किसी बाइक की टिमटिमाती सी हेडलाइट दिख रही थी। रोशनी से दूरी का अंदाज़ा लगाते हुए कार आगे बढ़ा दी। दूसरी तरफ कोई रोशनी नहीं दिख रही थी तो जान पर खेलकर चढ़ आए हाईवे पर। हाईवे घुप्प अंधेरे में डूबा हुआ था। स्ट्रीट लाइटेें बुझी हुई थीं। सड़क के किस छोर पर हूं, कहीं डिवाइडर से तो नहीं टकरा जाऊंगी, कुछ समझ पाना मुश्किल साबित हो रहा था।गाड़ी की हेड लाइट में डिवाइडर की काली-सफेद पट्टियां ही दिख पा रही थीं।  उन्हीं पट्टियों के सहारे आगे बढ़ रही थी। रियर मिरर में देखा कि पीछे से कोई बस या ट्रक जैसा भारी  भरकम वाहन आ रहा है। इस आशंका के साथ कि कहीं पीछे से गाड़ी को टक्कर न मार  दे उस वाहन का आना राहत भरा भी लगा। उसकी तेज़ रोशनी में सड़क कुछ ज्यादा दिख रही थी। सड़क के उपर ओझल सी पीली रोशनी  से पता चला कि चौराहा आ गया है और अब यहां से बायें मुड़ जाना है।  इस राह का हाल और बुरा था। उत्तर प्रदेश की आर्थिक राजधानी नोएडा की स्ट्रीट लाइटें इस जानलेवा मौसम में भी बंद पड़ी थीं।


वो व्यक्ति जिसने कभी दुनिया देखी न हो, जिसने कभी रोशनी देखी न हो वो इस दुनिया में किस तरह चलता होगा। आवाज़ों की तीव्रता, ध्वनि के उतार-चढ़ाव से अपने रास्ते तय करता होगा। कुछ न दिख पाने की सूरत में उन लोगों का ख्याल आ रहा था। कुछ आगे बढ़ने पर एक बाइक वाला दिखा जो सामान लादे जा रहे रिक्शे  को अपने पैर से टेक दे रहा था। ये जुगाड़पन इस घने कोहरे में भी। बाएं-दाएं और सीधे आंखें तकरीबन गड़ाते हुए आगे बढ़ रही थी। रोशनी का कोई सुराग नहीं दिख रहा था।  धीमी गति से आगे बढ़ते हुए  ख्याल बड़ी तीव्रता से आ रहे थे। घर छोड़कर आई छोटी बच्ची...ज़िंदगी के लिए नौकरी, नौकरी का संकट, भविष्य का संकट, निरुद्देश्य होने का संकट….। सड़क पर संकट, संकट से बच निकलने की चतुराई। इन सड़कों पर कोई भी लम्हा मौत की दस्तक हो सकता है। यहां से सुरक्षित अपने ठिकानों तक पहुंच जाना ही हर रोज़ की बड़ी बात हो जैसे।


डिवाइडर की काली-सफेद पट्टियां एक दूसरे से लिपटी हुई भाग रही थीं। ख्याल भी  कुछ इसी तरह।
ग्लैडिएटर ...योद्धा…युद्ध...किसके लिए युद्ध..बड़े पदों पर आसीन कुलीनों के मनोरंजन के लिए...उन्माद में चीखती दर्शक दीर्घा..अपनी बारी का इंतज़ार करते हुए एक बेड़े में खड़े ग्लैडिएटर...इन्हें लड़ना होगा अपने ही किसी साथी से….किसी एक को ढेर कर ही ये अपनी ज़िंदगी हासिल करेंगे...लेखक हावर्ट फास्ट...हम भी तो हैं ग्लैडिएटर...हमारा युद्द क्यों...बस जीने भर के लिए…हमारा मक़सद…घने कोहरे को छांटते हुए उस दफ्तर तक पहुंचना जो अब किसी मंजिल पर नहीं ले जाता..जहां कोई सफ़र भी नहीं...ठहराव...दिशाहीन… तालाब का पानी...।
अगला तिराहा आ पहुंचा और गाड़ी के साथ-साथ ख्यालों के भी ब्रेक लगे। अब राइट टाइम पर एक राइट टर्न लेना है। तिराहे के साथ दिक्कत है कि आप एक ओर की सड़क को देखकर, दूसरी सड़क की ओर आगे बढ़ सकते हैं लेकिन तीसरी सड़क हमेशा एक चांस पर निर्भर करती है। ज्यादातर चांस सही लगता है कोई गाड़ी आ भी रही होती है तो संभलते हुए रुक जाती है लेकिन अगर एक चांस भी गलत लग गया तो...। प्रॉबेबेिलिटी की थ्योरी  ख्याल आ रही थी। एक बात के घटने की संभाव्यता कितनी हो सकती है। फिलहात तो राइट चांस लेते हुए  आगे बढ़ रही थी। मेरे पीछे आ रही गाड़ी ने अपनी रफ्तार धीमी कर दी ताकि वो मेरी गाड़ी की ओट में आगे बढ़ता रहे। यानी अगर कोई दुर्घटना इंतज़ार कर रही होगी तो उसकी पहली मेहमान मैं होऊंगी। पर इस वजह से मैं रूक तो नहीं सकती। एक-दो और चौराहों से गुजरकर मैं दफ्तर के काफी नज़दीक पहुंच चुकी हूं। मगर ये क्या। यहां वाला चौराहा तो घुप्प कोहरे की अंधेरी गुफा की तरह तब्दील हो गया हो जैसे। कोई ओर-छोर नज़र नहीं आ रहा था। डिवाइडर की पट्टियां भी गुम हो गईं। सड़क के लेफ्ट राइट कट कहां और कितनी दूर हैं इसका अंदाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता। मन कर रहा था कि गाड़ी यहीं रोक दूं। लेकिन ये भी जानलेवा था। पीछे सेे आती कोई भी गाड़ी ठोंक देती।     
ये सफ़र किस्मत और गणित के साथ चल रहा था। पुराने सफ़र की दूरियों के अंदाज़े का गणित। अब यहां कट आ जाना चाहिए। प्रॉबेबिलिटी की थ्योरी क्या कहती है। सड़क पर अपनी उपस्थिति का एहसास कराने के लिए बीच में हॉर्न भी दे रही थी। यहां मैं हूं, जो भी यहां हैं वो ये जान लें, ये मेरी गाड़ी का  ह़ॉर्न है, यहां मैं हूं। किस्मत और गणित दोनों इस बार साथ हैं। एक-दो और खतरनाक लगते मोड़ों को पार करते हुए मुझे अपने दफ़्तर का गेट दिखायी दे गया। गाड़ी पार्क करते हुए भी कोहरा डरा रहा था। हमेशा की तरह बोगनवेलिया के पेड़ के नीचे गाड़ी लगायी। जिसके फूल गाड़ी के शीशे पर छा जाते थे। लौटने पर जैसे मेरा स्वागत करते हों।  दफ्तर में प्रवेश के लिए कार्ड के साथ अंगूठा लगाते हुए सोचा कि जानलेवा सफ़र था पर अब इस पर हंसा जा सकता था।

11 January 2015

साक्षी महाराज के उपदेश का गणित


साक्षी महाराज के उपदेश का गणित
(चित्र गूगल से साभार)

साक्षी महाराज चाहते हैं कि हिंदू महिलाएं कम से कम चार बच्चे पैदा करें।  भारत की पिछली सरकारों की सारी मुहिम पर पानी फेरते हुए उनका ये व्यक्तव्य आया। तब कि इस देश के रेलवे -बस स्टेशन, मंदिरों, पर्यटन स्थलों पर भूखे-बेछत-बेआसरा बच्चे बिलबिलाते हुए घूमते हैं। अनाथालयों में बच्चों की संख्या में कोई कमी नहीं है। यहां तक कि बाल सुधार गृह  बच्चों से भरे हुए हैं।
इस सब के साथ एक बच्चे की अच्छी परवरिश कर पाना, उसे देश का एक अच्छा नागरिक बनाने के लिए तैयार करना कितना मुश्किल काम है, इस बात से साक्षी महाराज अनभिज्ञ तो नहीं हो सकते। वो सिर्फ पूजा-पाठ करनेवाले महाराज नहीं बल्कि एक सांसद भी हैं।  
सम्मानजनक तरीके से एक हिंदू महिला को एक बच्चे को जन्म देना होता है तो पैसों  के कितने ब्रेकर्स आते हैं, साक्षी महाराज को ये जानना जरूरी है।नौ महीने में कम से कम नौ बार तो डॉक्टर के पास जाना ही होता है, इससे ज्यादा भी जाना पड़ सकता है। खांसी जुकाम के ढंग के डॉक्टर की फीस भी 400-500 रुपये है। साधारण स्त्री रोग विशेषज्ञ की फीस 500 रुपये रख लीजिए। तो नौ महीने में  4500 हजार रुपये तो सिर्फ डॉक्टर की फीस हो गई। शुरुआती दौर में डॉक्टर्स कुछ अल्ट्रासाउंड भी कराती ही हैं, दो अल्ट्रासाउंड को दो हजार रुपये जोड़ देते हैं तो 6500 रुपये हुए। जबकि मेरा खुद का अनुभव कई अल्ट्रासाउंड से गुजर चुका है। नौ महीने जो दवाएं जच्चा को खानी पड़ती हैं और इसके साथ  ज्यादा पौष्टिक आहार की जरूरत होती है तो दोनों को मिलाकर दस हजार रुपये रख दें तो अब तक का कुल खर्च हुआ 16500 रुपये। एक साधारण प्राइवेट अस्पताल या नर्सिंग होम में नॉर्मल डिलिवरी में भी 20 से 30 हज़ार रुपये लग जाते हैं। यदि ऑपरेशन हुआ तो कम से कम पचास हजार रुपये। डॉक्टर आजकल आपरेशन के मौके छोड़ते नहीं  तो डिलिवरी और उसके बाद दवाइयों का खर्च मिलाकर पचास हजार रुपये जोड़ लें तो अब हम पहुंच गए 66,500 रुपये पर।
बच्चे का जन्म खुशियां लेकर आता है और जिम्मेदारियां भी, इसके साथ बढ़ा खर्च भी। बच्चे के जन्म के बाद उसके टीकाकरण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। सरकारी अस्पतालों में मेरा तो विश्वास है नहीं। प्राइवेट डॉक्टर्स जो इंजेक्शन लगवाते हैं हजार, दो हजार, तीन हजार से कम के नहीं होते। अलग-अलग इंजेक्शन के अलग-अलग खर्च होते हैं और सबके सुपर डोज भी। एक डोज से काम चलता नहीं। पांच साल की उम्र तक बच्चों को कई इंजेक्शन लग जाते हैं। मौटे और न्यूनतम तौर पर हम दस हजार रुपये सिर्फ इंजेक्शन के जोड़ लेते हैं। तो अब कुल खर्चा 76,500 रुपये पहुंच गया है। इसके अलावा बच्चों के सेरेलेक, डाइपर और बच्चे को दूध पिलाने की अवस्था में मां का पौष्टिक आहार महंगाई के इस दौर में सस्ता नहीं है। एक महीने में सेरेलेक के दो डब्बे यानी हजार रुपये। ऑर्डनरी डाइपर का हिसाब जोड़ें तो पांच सौ रुपये हर महीना कम से कम। तो इस 1500 रुपये का एक साल के हिसाब से खर्च जोड़िये  17,000 रुपये। तो अब कुल रकम 93,500 रुपये। ये बच्चे के पहले जन्मदिन तक होने वाला मोटा खर्च है। छोटे बच्चे बीमार भी पड़ते हैं, उनके कपड़े, खेल-खिलौने और जरूरत की दूसरी चीजें इस लिस्ट में नहीं जोड़ी गई हैं।
साल दर साल इस खर्च में इजाफा ही होता है। डॉक्टर की फीस, दवाइयों की कीमत,दूध की कीमत, अस्पतालों का खर्च बढ़ता ही है। तो चार बच्चों का पहले एक साल का कुल खर्च हुआ 3,74,000 रुपये।
मैंने अपनी बेटी का एडमिशन एक पब्लिक स्कूल में कराया है। मैं चाहती हूं मेरी बेटी को अच्छी शिक्षा मिले। उत्तर प्रदेश के सरकारी स्कूलों की हालत आप जाकर देख सकते हैं। किसी भी प्राइवेट स्कूल में इन दिनों डोनेशन 50 हजार से उपर ही है। मुझे कोई 70 हजार रुपये देने पड़े। चलिये आप पचास हजार रुपये के हिसाब से ही जोड़ लें तो चार बच्चों के एक ढंग के स्कूल में एडमिशन का चार्ज दो लाख रुपये से तीन लाख रुपये के बीच आएगा। दो लाख रुपये ही जोड़ते हैं तो अब तक बजट हो चुका है  5,74 ,000 रुपये। बारहवीं तक की पढ़ायी यानी 14 साल। हर साल फीस और स्कूल बस का खर्च जोड़ते हैं। साधारण स्कूलों की फीस दो हजार रुपये से शुरू होती है। अच्छे स्कूलों की आठ-दस हजार रुपये मासिक से उपर जाती है। उसके उपर के स्कूल को छोड़ देते हैं। मैं इस समय त्रैमासिक तकरीबन 20 हजार रुपये बतौर फीस दे रही हूं। तो चार किस्ते हुईं 80 हजार रुपये और एनुअल फी को जोड़ें तो एक लाख रुपये सालाना से ज्यादा। चार बच्चे यानी चार लाख सालाना। 14 साल तक पढ़ायी यानी 4 गुणा 14 लाख रुपये हुए 56 लाख रुपये। इस 56 लाख में पुराने बजट को जोड़ दें तो ये हुए  61,74,500 रुपये।
सिर्फ पढ़ायी का खर्च जोड़ा गया है। बच्चों की स्कूल किताबें, खान-पान, दवाइयां, खेल-खिलौने, कपड़े और कई सारी दूसरी चीजों का औसतन खर्च क्या निकालेंगे। बहुत कम रकम रखते हुए भी 20 हजार रुपये सालाना राशि मान लेते हैं। एक बच्चे का 18 साल की उम्र तक सालाना 20 हजार रुपये का मतलब हुआ कुल  3,60,000 रुपये। हालांकि एक्चुअल रकम इससे कहीं ज्यादा होगी। अब चार बच्चों का इस हिसाब से खर्च हुआ 14,40,000 रुपये। उपर की कुल रकम में इसे जोड़िये।
हम पहुंच गए हैं 76,14,500 रुपये पर। मैं एक नौकरीपेशा महिला हूं। मेरी एक बेटी है। नौकरी और परिवार दोनों की जिम्मेदारी साथ उठाना बहुत मुश्किल होता है। हमारी सोसाइटी में शादीशुदा महिला की नौकरी ही शर्तों में बंध जाती है, उनकी तरक्की के मौके कम होते जाते हैं। चार बच्चों के साथ तो मैं नौकरी नहीं कर पाउंगी। जाहिर है मेरी नौकरी छूट जाएगी। तो मेरी नौकरी छूटने की भरपायी भी जरूरी है। क्योंकि उसके बिना तो बच्चे पाले ही नहीं जा सकेंगे, न उनका खर्च उठाया जा सकेगा। तो साधारण तौर पर पांच लाख रुपये सालाना मानते हुए मुझे 18 साल तक पांच लाख रुपये सालाना का भुगतान करें और इसमें हर  साल होने वाले 20 फीसद इंक्रीमेंट को भी जोड़ें। मेरा गणित बहुत अच्छा है नहीं इसलिए मैं पहले पांच लाख रुपये सालाना के हिसाब से 18 साल का हिसाब बताती हूं। ये होगा कोई 90लाख रुपये। चलिए 18 साल की कमाई मिनिमम से भी कम इंक्रीमेंट के साथ एक करोड़ रुपये जोड़ देते हैं।
तो अब कुल रकम हुई 1 करोड़ 76 लाख, 14 हजार 5 सौ रुपये।  अब मेरा पहला बच्चा या तो कॉलेज जाएगा या इंजीनियरिंग, मेडिकल, एमबीए जैसी कोई पढ़ाई करेगा। ग्रेजुएशन और उच्च शिक्षा का खर्च जोड़ दें वो भी न्यूनतम तो 5 से 10 लाख रुपये का खर्च आएगा। तो अब 1 करोड़ 76 लाख, 14 हजार 5 सौ रुपये को मोटे तौर पर दो करोड़ रुपये मान लें। चार बच्चे तो पैदा हो जाएंगे लेकिन ये दो करोड़ रुपये कहां से आएंगे। इन पैसों में आप घर का खर्च, मकान खरीदने का खर्च, बाइक-कार का खर्च, बिजली के बिलों, डॉक्टरों के बिलों जैसे तमाम खर्चे जोड़ दें तो ये रकम जाने कहां चली जाएगी। अब आधार कार्ड और सीधे अकाउंट में पैसा डालने की व्यवस्था शुरु हो गई है। देश की आधी आबादी के लिहाज से साक्षी महाराज सब माओं के अकाउंट में ये दो-दो करोड़ रुपये डलवा दें।